काम करेंगे, तो पेंशन लेने में क्या ऐतराज
जब कोई व्यक्ति कुछ काम करता है, तो फल की इच्छा रखता ही है। यह इच्छा तब और उचित जान पड़ती है, जब किसी ने अपना तन-मन-धन उस काम में खर्च कर दिया हो। जन-प्रतिनिधियों को इसी श्रेणी में रखना चाहिए…
जब कोई व्यक्ति कुछ काम करता है, तो फल की इच्छा रखता ही है। यह इच्छा तब और उचित जान पड़ती है, जब किसी ने अपना तन-मन-धन उस काम में खर्च कर दिया हो। जन-प्रतिनिधियों को इसी श्रेणी में रखना चाहिए। यह सही है कि कुछ जन-प्रतिनिधि जनता के विकास पर पूरा ध्यान नहीं देते, लेकिन ज्यादातर नेता अपने कार्यकाल में जनता की सेवा करना चाहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि जनादेश पाने के लिए उनको जनता के लिए काम करना ही पड़ेगा। ऐसे में, अगर वे वेतन-भत्ते या पेंशन आदि की इच्छा रखते हैं, तो इसमें क्या गलत है? यह समझना होगा कि कोई नेता अचानक से जन-प्रतिनिधि के रूप में नहीं चुना जाता। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उसे काफी मेहनत करनी पड़ती है। अपना खून-पसीना बहाना पड़ता है। अपने क्षेत्र में घर-घर घूमना पड़ता है। तब जाकर वह किसी चुनाव में जीत हासिल कर पाता है और जन-प्रतिनिधि बन पाता है। बताइए, जब कोई इतनी मेहनत करेगा, तो फल क्यों नहीं पाना चाहेगा? आलोचक महज पांच साल के कार्यकाल को देख रहे हैं, पर उस पांच साल को संभव बनाने के लिए जीवन के कितने साल खर्च होते हैं, उस पर वे ध्यान नहीं दे रहे।
कुछ यही तर्क वेतन-भत्ते को लेकर भी है। आरोप लगाया जाता है कि जन-प्रतिनिधियों को सुविधाओं के नाम पर बेहिसाब राशि दी जाती है। मगर ऐसा कहने वाले किसी जन-प्रतिनिधि के घर पर लगने वाले मजमे में शायद नहीं जाते। किसी न किसी समस्या को लेकर क्षेत्र के लोग अपने जन-प्रतिनिधि के दरवाजे पर आते ही रहते हैं और उनमें से कई की खातिरदारी चाय-पानी से की जाती है। अब कल्पना कीजिए, जिस घर में सैकड़ों कप चाय रोजाना बनती हो, उस घर में राशन के लिए अतिरिक्त मदद की जरूरत पड़ेगी कि नहीं? फिर, कई लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करनी पड़ती है। यह सब खर्च जन-प्रतिनिधि को अपनी जेब से करना पड़ता है। इसके लिए उनको अतिरिक्त से कुछ मदद नहीं मिलती। ऐसे में, यदि उन्हें वेतन-भत्ते नहीं दिए जाएंगे, तो वे अपने दरवाजे पर आने वाले लोगों का सत्कार कैसे कर पाएंगे?
जन-प्रतिनिधियों के लिए सबसे जरूरी है जनता। हमें यह समझना चाहिए कि जब कोई व्यक्ति अपने जन-प्रतिनिधि के पास पहंुचता है, तो वह समस्या के समाधान के साथ-साथ वहां सम्मान का भी आकांक्षी होता है। इसके लिए जरूरी है कि जन-प्रतिनिधियों के पास इतनी आर्थिक हैसियत हो कि वे दूसरों की मदद लिए बिना अपने क्षेत्र के लोगों की सेवा कर सकें।
नरसिंहनाथ, टिप्पणीकार
समाज सेवा के संकल्प में वेतन-पेंशन क्यों
यह विचित्र बात है कि ‘जनसेवा’ और ‘जनसेवक’ जैसे शब्दों के अर्थ अब बदल गए हैं। अब नि:स्वार्थ भाव से जनता की सेवा करने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं होता, बल्कि अब कथित जनसेवा के बहाने वेतनभोगी कर्मचारी बनने की आकांक्षा पाली जाती है और पांच साल की कथित सेवा के बाद पेंशन जैसी सुविधाओं का हकदार माना जाता है। विडंबना ही है कि लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन इस विश्वास के साथ करती है कि वे उनके अधिकारों और कल्याण के लिए काम करेंगे, लेकिन वास्तव में इनका व्यवहार अब ‘सेवा’ से अधिक ‘सुविधा और लाभ’ की ओर झुका हुआ प्रतीत होता है। जब कोई व्यक्ति किसी सरकारी या निजी संस्थान में नौकरी करता है, तो उसे निश्चित वेतन और भत्ते दिए जाते हैं। यह वेतन उसके कार्य और प्रदर्शन के आधार पर तय होता है। पेंशन भी तभी मिलती है, जब एक लंबी अवधि तक वे काम करते हैं। मगर कथित जनसेवक के रूप में चुने गए प्रतिनिधि अपने पांच साल के काम-काज में ही वेतन, भत्ते, आवासीय सुविधाएं, पेंशन जैसी तमाम सुविधाओं के हकदार बन जाते हैं। क्या यह व्यवस्था न्यायोचित है?
पेंशन का उद्देश्य है- सेवानिवृत्त होने के बाद व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना। यह उन लोगों के लिए है, जिन्होंने जीवन भर समर्पित होकर काम किया है, लेकिन जब यह सुविधा पांच वर्ष के सीमित कार्यकाल के लिए दी जाती है, तो इसे न केवल संसाधनों का दुरुपयोग माना जाना चाहिए, बल्कि नैतिकता और न्याय की दृष्टि से भी गलत कहा जाना चाहिए। भारत जैसे देश में महात्मा गांधी ने तब तक तन पर एक धोती पहनना स्वीकार किया था, जब तक कि समस्त लोगों के तन न ढके जा सकें। गांधी जी को आदर्श मानने वाले हमारे जन-प्रतिनिधि आखिर किसी मुंह से इतनी सुविधाएं ले रहे हैं, जबकि वे जानते हैं कि देश की एक बड़ी आबादी को आर्थिक मजबूरियों के कारण दो जून की रोटी तक नसीब नहीं हो पाती?
साफ है, जन-प्रतिनिधियों की पेंशन-व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है। यह व्यवस्था इस तरह होनी चाहिए कि केवल उन्हीं जन-प्रतिनिधियों को पेंशन मिले, जिन्होंने लंबे समय तक जनता की सेवा की हो और जिनका योगदान स्पष्ट व उल्लेखनीय हो। उनका वेतन-भत्ता भी केवल आवश्यकताओं तक सीमित हो, न कि उसे विलासिता का साधन बना दिया जाए। सुनिश्चित यही किया जाना चाहिए कि प्रतिनिधियों को केवल आवश्यक सुविधाएं दी जाएं। वैसे भी, समाज-सेवा के संकल्प में वेतन-भत्ते या पेंशन आदि की जरूरत कहां है?
बलदेव राज भारतीय, टिप्पणीकार
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