देश तभी बढ़ेगा, जब काम के घंटे बढ़ेंगे
- लार्सन ऐंड टूब्रो के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन के इस बयान के बाद कि कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए और रविवार को भी उनको काम करना चाहिए, देश में काम के घंटे को लेकर फिर से बहस शुरू हो गई है…
लार्सन ऐंड टूब्रो के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन के इस बयान के बाद कि कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए और रविवार को भी उनको काम करना चाहिए, देश में काम के घंटे को लेकर फिर से बहस शुरू हो गई है। इससे पहले इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने भी सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी। जाहिर है, बड़े नाम होने के कारण उनके बयान सुर्खियों में आते हैं और देश-दुनिया में नई बहस छिड़ जाती है। हालांकि, इन बयानों के निहितार्थ में जाने के बजाय हम बयान के शब्दों में ही उलझ जाते हैं, जिससे बहस की पूरी दिशा बदल जाती है। सुब्रह्मण्यन के बयान के बाद ही महिला अधिकारवादियों ने अलग मोर्चा खोल दिया है और उनके बयान को महिलाओं के खिलाफ माना, जबकि बयान में ऐसा कुछ नहीं था। उन्होंने बतौर बिंब पत्नी शब्द का इस्तेमाल किया था।
वास्तव में, उनके बयान पर लोग जिस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं, उससे यह संदेह भी उत्पन्न हो रहा है कि क्या हमारे देश में कर्मचारी या अधिकारी आराम-तलब हो गए हैं? क्या 90 या 70 घंटे काम करना उनको नागवार गुजरता है? अगर हम किसी व्यापारी, होटल वाले या रेहड़ी वाले को देखें, तो वे प्रति सप्ताह 90 घंटे या इससे भी अधिक काम करते दिखेंगे और उन्हें अपने काम को लेकर कोई शिकायत भी नहीं होती। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही दिन-रात काम में जुटे रहते हैं, यहां तक कि अवकाश भी नही लेते हैं। हालांकि, सरकारी दफ्तरों में जाएं, तो वे रविवार की 52 छुट्टियों के अलावा और त्योहारों पर भी बंद मिलते हैं। लिहाजा, यहां असली सवाल काम के घंटे का नहीं, बल्कि इसको लेकर हमारे सरकारी और निजी दफ्तरों में मौजूद दोहरे मापदंड का है।
अगर दूसरे देशों, विशेष रूप से विकसित राष्ट्रों की बात करें, तो वहां काम के घंटे को लेकर एक अलग मानसिकता दिखती है। वहां के कर्मचारी अपने एक-एक मिनट का उपयोग करते हैं और अपनी उत्पादकता बढ़ाने का निरंतर प्रयास करते हैं। वास्तव में, काम करने की ऐसी मानसिकता हमारे देश के लोगों में भी होनी चाहिए। इसी के लिए हमें सुब्रह्मण्यन या नारायण मूर्ति के बयानों को समझना चाहिए और उसे अपने जीवन में उतारना चाहिए। वैसे भी, यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश विकसित राष्ट्रों के समूह में शामिल हो, तो हमें काम के घंटे बढ़ाने ही होंगे। जब काम के घंटे बढ़ेंगे, तभी लोगों की उत्पादकता भी बढ़ेगी, जिससे हमें, हमारी कंपनी और अंतत: हमारे देश को लाभ होगा।
सुभाष बुड़ावन वाला, टिप्पणीकार
इंसान को मशीन बनाने की भूल न करें
एस एन सुब्रह्मण्यन ने बड़ा ही अटपटा बयान दिया। उस बयान का विरोध वाजिब है। आखिर इंसान कोई मशीन नहीं होता। उसके पास नौकरी के अलावा भी कई तरह के अन्य काम होते हैं। उस पर परिवार और समाज के दायित्व होतें हैं। बच्चों की देख-रेख और उनका पालन-पोषण भी उसके कर्तव्य का हिस्सा हैं। एक तो पहले से ही तीव्र औद्योगीकरण व मशीनीकरण ने इंसान को काफी हद तक यांत्रिक बना दिया है, जिसके कारण वह पारिवारिक-सामाजिक संबंधों को मानवीय दृष्टिकोण से देखने के बजाय यांत्रिक व पैसों की नजर से देखने लगा है। ऊपर से यदि उसे और भी दफ्तर का गुलाम बना देंगे, तो वह पशु समान हो जाएगा, क्योंकि वह मूल्य, विचार, भावना, प्यार, सहयोग आदि से अलग हो जाएगा और मशीन सा व्यवहार करने लगेगा, जो मानव समाज के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है। निस्संदेह, पूंजी और श्रम के इतिहास का यह एक ऐसा विषय है, जो पूरी संवेदना की मांग करता है, लेकिन काम के घंटों की चर्चा में मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य की चिंता भी शामिल होनी चाहिए और इसके लिए सुब्रह्मण्यन और नारायण मूर्ति जैसे दिग्गजों को अपने कर्मियों की सैलरी एवं सुख-सुविधाओं का भी ध्यान रखना चाहिए। हकीकत यह है कि औसत भारतीयों की मासिक कमाई 20 हजार रुपये से भी कम है।
हर्षवर्द्धन कुमार, टिप्पणीकार
कर्मियों को खुशहाल बनाइए
लार्सन ऐंड टूब्रो (एलऐंडटी) के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन के बयान ने काम के घंटे पर स्वाभाविक ही एक बहस शुरू की है। उन्होंने 90 घंटे प्रति सप्ताह काम का सुझाव दिया, जिसे चीन की कार्य-संस्कृति से प्रेरित बताया गया। उनका कहना था, घर बैठकर कितनी देर तक अपनी पत्नी को निहारोगे?- उनके इस दृष्टिकोण ने कार्यक्षमता और व्यक्तिगत जीवन के संतुलन पर सवाल उठाए हैं। क्या केवल काम के घंटे सफलता का पैमाना हो सकते हैं? चीन और जापान में लंबे काम के घंटे समर्पण का प्रतीक माने जाते हैं,मगर यह कर्मचारियों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर भी डालता है। भारत में निजी क्षेत्र की कठोर कार्य-संस्कृति तनाव बढ़ा रही है, जबकि सरकारी नौकरियों में संतुलन बेहतर है। महामारी ने दिखाया है कि काम के घंटों के लचीलेपन व ‘वर्क फ्रॉम होम’ से उत्पादकता बढ़ सकती है। संतुलित कार्य-संस्कृति कर्मचारियों व संगठनों की दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित करती है। कंपनियों को नहीं भूलना चाहिए कि खुशहाल कर्मचारी ही उनकी ताकत हैं।
आर के जैन ‘अरिजीत’, शिक्षाविद्
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