रज़ा साहब का रंगमंडल
सैयद हैदर रज़ा साहब की 101 वीं जन्म शताब्दी पर सेंटर पोम्पीदु में रज़ा साहब के चित्रों की एक विशाल प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला। इसमें 90 से भी अधिक कलाकृतियाँ और करीब 83 दस्तावेज़ देखने का अवसर मिला।
अगर रंग न होते तो पता नहीं यह संसार दिखने में कैसा लगता, यहाँ हम काले और सफेद को भी शामिल कर रहे हैं क्योंकि यह दोनों भी बहुत अहम रंग हैं। रंगों की भी अपनी एक दृष्टि और एक अभिप्राय होता है, एक समग्रीकरण होता है। रंग एक सम्पदा की तरह हमारे जीवन में कार्य करते हैं। रंग स्वयं एक बिम्ब की तरह हमारे संसार में अपनी जगह बनाते हैं, प्रत्येक असंभव को संभव बनाते हुए, रंग ही हमें पूर्ण करते हैं। कोई अगर मुझसे पूछे कि मेरा प्रिय रंग कौन सा है, तो मैं कहूँगी मुझे सभी रंग प्रिय हैं। पिछले दिनों पेरिस में रंगों और कलाकृतियों को बहुत समीप से देखने और समझने का अवसर मिला। सैयद हैदर रज़ा साहब की 101 वीं जन्म शताब्दी के अवसर पर सेंटर पोम्पीदु में रज़ा साहब के चित्रों की एक विशाल प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला। इस प्रदर्शनी में नब्बे से भी अधिक कलाकृतियाँ और करीब 83 दस्तावेज़ देखने का अवसर मिला जिसमें सबसे अधिक चित्रों और पत्रों ने मुझे आकर्षित किया।
एक कलाकार की कलाकृतियों में ही कलाकार का मन साफ झलकता है। यह मेरा सौभाग्य रहा जो देर तक मैंने रज़ा साहब के चित्रों को देखा, उन चित्रों में मैंने चौंकाने वाला एक संसार देखा, रंगों का चमत्कार देखा और सबसे अहम बात यह की रज़ा साहब और अशोक वाजपेयी जी की दोस्ती निभाने के महानतम भाव को देखा। रज़ा साहब के जाने के बाद भी अशोक वाजपेयी जी अपने दोस्त के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं कि उनके चित्र जो विश्व प्रसिद्ध हैं, उन सभी चित्रों और कलाकृतियों को और अधिक से अधिक लोग देखें, जाने और समझें। रज़ा साहब पर बोलते हुए अशोक वाजपेयी जी ने बताया कि रज़ा साहब सदैव कहते थे कि, "जिस प्रकार मुझे मेरे संघर्ष के दिनों में अन्य लोगों और वरिष्ठों से सहायता मिली, उसी प्रकार मैं भी कलाकारों की सदैव सहायता करूँगा।" उनका यह कथन अभी तक चरितार्थ है। वे अभी तक अलग अलग क्षेत्रों के कलाकारों की सहायता कर रहे हैं और यह अशोक वाजपेयी जी के कारण ही संभव हुआ है। पेरिस के इस आयोजन के लिए वे पिछले छह सालों से प्रयत्न कर रहे हैं और यह अब जाकर संभव हुआ है कि प्रदर्शनी की भव्यता और दिव्यता जो देखेगा, वही समझ सकेगा। प्रदर्शनी में मैंने देखा कि हर आयु के लोग चाहे वे युवा हो या प्रौढ़ या बुज़ुर्ग, सभी बहुत उत्सुकता और जोश के साथ प्रदर्शनी में शामिल हुए और प्रत्येक चित्र को बहुत ध्यान से और समय लेकर देख रहे थे। वह जगह एक रंगमण्डल जैसा दिख रहा था। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है कि एक ऐसा कलाकार जो हमारे मध्य न होकर भी हमारे बहुत समीप है। अशोक वाजपेयी जी और रज़ा फाउंडेशन के कारण ही यह संभव हुआ है कि कला, चाहे वह लेखन हो, संगीत हो, चित्रकारी हो अथवा कोई और कला, अपने भव्यतम रूप में संसार में अपनी जगह बना रहा है। यह प्रदर्शनी 15 मई, 2023 तक लगी रहेगी। रज़ा साहब ने पेरिस में रहकर बहुत समय तक चित्र बनाये, एक अच्छा खासा समय वहाँ व्यतीत किया। आयोजन में रज़ा साहब पर अशोक वाजपेयी जी, फ्रांस के राजदूत, एमैनुएल लैनिन, पिरामल संग्रहालय के निदेशक अश्विनी राजगोपालन, किरण नाडर म्यूज़ियम से किरण नाडर जी आदि ने रज़ा साहब की स्मृति में रज़ा साहब पर और उनके चित्रों पर बात की। रज़ा साहब के अनुसार, "पेरिस के लिए रवाना होने के समय तक मैं भारतीय शैली और भारतीय अवधाराणों में इतना डूबा रहा था कि पेरिस में दो साल तक मैं भारतीय शैली में ही काम करता रहा : लैण्डस्केप, हाउसकेप, अर्थस्केप बनाता रहा लेकिन फिर मैंने सेज़ान का गम्भीरता से अध्ययन किया। मैं बार बार संग्रहालय में गया और सेज़ान के रचना विधान को समझने की कोशिश करता रहा। मैंने कैण्डिस्की की पुस्तक द स्पिरिचुअल इन आर्ट पढ़ी और विशेष रूप से घनवाद (क्यूबिज़्म) का अध्ययन किया जिसमें चित्रों को बहुत सावधानी के साथ गढ़ा जाता था। मैंने इस हद तक समझने की भी कोशिश की कि मॉन्द्रियाँ और वाज़ारेली ने विशुद्ध ज्यामिति को किस तरह बरता था और निकोलस डि स्टाएल ने उसे किस तरह बरता था। दूसरे बड़े कलाकारों के काम भी थे। जिनमें से कुछ अभी भी जीवित हैं, कुछ नहीं हैं, जो पेरिस के कला-परिदृश्य का हिस्सा थे।"
पेरिस में प्रदर्शनी को देखकर रज़ा साहब को और समीप से जाना, उनके चित्रों को ख़ूब गौर से देखा, उनके पत्र पढ़े, रज़ा साहब के बारे में यह जाना कि उन्होंने पेरिस के अमूर्त कला को देखा और समझा और क्योंकि उनका जन्म नरसिंहपुर में हुआ था तो उनकी बचपन की स्मृतियों में सदैव जंगल का घनापन, माटी का विस्तार और अँधकार की अनेक ध्वनियाँ सदैव रही।
ये भी जाना कि रज़ा साहब को संगीत सुनने का बहुत शौक था और कुछ वादकों से वे मिले भी थे। उन्होंने गाँधी जी पर जो चित्र बनाये थे, वह भी देखे। चित्र ऐसे भी थे जो बिन्दुओं पर एकाग्र थे। एक बिन्दु से शुरू होकर चित्र ऐसे फैल रहे थे जैसे जलतरंग बज रहा हो जैसे थोड़ी हलचल और थोड़ा सा ठहराव, ऐसा कुछ। एक चित्र जो कि सन्मति के नाम से था, वह भी हमने देखा और जाना कि इस चित्र में उन्होंने एकता शब्द को दर्शाया है, ऐसा लग रहा था जैसे उनके चित्रों में कोपलें फूट रही हों और प्रार्थनाओं से यह संसार भर गया हो, एक स्वरभंग एक बिंदु के सातवें तरंग से निकलता हुआ उनके कृतित्व और उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। मैंने अशोक वाजपेयी जी से रज़ा साहब के बारे में और अधिक जाना, समझा, उनके दर्शन और आध्यात्म से जुड़े पहलुओं को जाना, यह भी जाना कि पहलेपहल वे ग्वाश से चित्रण करते थे, पंचतत्व चित्र, परमबिंदु, बहुवर्णी प्रदीप्त रंगतों, ज्यातिमिय रुपाकारों के बारे में जाना। एक महान चित्रकार के विषय में जानना, उनके बारे में पढ़ना, उनके चित्रों को देखना और फिर देर तक देखना, उन चित्रों पर उन दोस्तों से चर्चा करना जो चित्रकार हैं, यह सब करना समृद्ध और संपन्न करता है। पेरिस की यह प्रदर्शनी कालक्रमबद्ध तरीके से लगी हुई पहली मोनोग्राफिक प्रेसेंटेशन है, जिसमें की रज़ा साहब के 1950 से 1990 तक के चित्रों को दिखाया जा रहा है। एक महान कलाकार हमारी स्मृतियों में पहले एक असंभव का तंतु बनकर आते हैं, फिर एक ओज बनकर बस जाते हैं, रंग समेत, चित्र समेत, स्वयं समेत। उनकी प्रवीणता से हम प्रेरणा पाते हैं। रज़ा साहब की स्मृतियों को सादर नमन।
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