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कोरोना लॉकडाउन पलायन: सड़क पर जिंदगी, टूट रही प्रवासियों की उम्मीदें-Video

झुंड में चले आ रहे हैं। कोई दिल्ली से आ रहा है, कोई हरियाणा से, कोई नागपुर से...कोई पैदल चला आ रहा है, कोई साइकिल से, तो ट्रक पर सारी कमाई लुटा कर आ रहा है। सब पटना आकर थोड़ा सुस्ता रहे हैं। अपने भीतर...

Malay Ojha पटना, हिन्दुस्तान टीम, Sun, 17 May 2020 11:05 AM
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झुंड में चले आ रहे हैं। कोई दिल्ली से आ रहा है, कोई हरियाणा से, कोई नागपुर से...कोई पैदल चला आ रहा है, कोई साइकिल से, तो ट्रक पर सारी कमाई लुटा कर आ रहा है। सब पटना आकर थोड़ा सुस्ता रहे हैं। अपने भीतर की उम्मीद जगा रहे हैं...लेकिन प्रशासन की बेरुखी उन्हें रुला दे रही है...और फिर राजधानी छोड़ अपने गांव की तरफ चल दे रहे हैं प्रवासी। लॉकडाउन ने मजदूरों की जिंदगी को कैसे सड़क पर ला दिया है। एक रिपोर्ट...।

जब तक शरीर साथ दे रहा है, चलते रहेंगे
भूख, सड़क की खाक और वेबसी है। दोपहर के ढाई बज रहे हैं। चिलचिलाती धूप है। चार कदम आगे बढ़ते हैं फिर रुक जाते हैं। काश कोई ट्रक वाला आये तो उसे हाथ दें और रुक जाए, लेकिन हाय रे किस्मत बढ़ते कदमों के साथ उनकी परेशानी और बढ़ती जा रही है। गर्मी से हलक सूख रहे हैं। आसपास में कोई चापाकल भी नजर नहीं आ रहा है। ऐसे में चलने के सिवा कोई चारा नहीं है। जब तक शरीर साथ दे रहा है। चलना ही पड़ेगा। 

शुक्रवार को महाराष्ट्र से पटना के जीरो माइल पर पहुंचे मजदूर राम नजर पांडेय को यह नहीं पता था कि बेहाली का ऐसा भी दर्द सहना पड़ेगा। सुपौल के निर्मली के रहने वाले राम नजर बताते हैं कि वह मजबूरी में भी महाराष्ट्र में रह रहे थे। एक समय खाना खाकर दो महीने काट लिये। लेकिन गांव में बच्चों का पेट कौन भरता, दो महीने हो गये, घर में एक पैसा नहीं भेजे, उनकी जिन्दगी के लिए निकलना पड़ा। वे बताते हैं कि महाराष्ट्र के कागज फैक्ट्री में काम करते थे। लॉक डाउन की वजह से फैक्ट्री बंद हो गई। जब हम महाराष्ट्र से घर के लिए निकले तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे जाएंगे। 

युवक दीप पांडेय बताते हैं कि उसे पढ़ने में मन नहीं लगता था तो मुम्बई कमाने निकल गया था। किस्मत में गरीबी थी, लेकिन ऐसी लाचारी झेलनी पड़ेगी, सपने में भी नहीं सोचा था। गांव में बूढ़ी मां हर दिन  रो-रोकर काट रही है। महाराष्ट्र में गाड़ी के लिए भटकते देख वहां की सरकार ने बस से मध्यप्रदेश बॉर्डर पर लाकर छोड़ दी। मध्यप्रदेश में भी बस से यूपी बॉर्डर पर छोड़ा गया। यूपी में दो दिनों तक खाने के लिए भटकते रहे। 

बस स्टैंड आकर उम्मीदें टूट रही हैं...
थक-हार कर बैठ गए हैं। भूख-प्यास से बेचैन हैं। 16 मजदूर हैं, जिसमें से 13 ट्रक से पहुंचे हैं और तीन साइकिल से। तीनों साइकिल सवार दिल्ली से नौ दिन में पटना पहुंचे हैं। ट्रक पर चढ़कर आने वाले 3500-3500 रुपये देकर आए हैं। अब किसी के पास पैसे नहीं है। सब बार-बार इधर-उधर देख रहे हैं। इस उम्मीद से कि शायद प्रशासन की गाड़ी आ जाए। ठीक 12 बजे पुलिस की एक जिप्सी पहुंची। एक पुलिस वाले ने कहा, गाड़ी मिल जाएगी, बैठे रहो तुम लोग। अब डेढ़ बज रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई नहीं आया है। अर्रंवद मोदी नाम का मजदूर बात करते-करते रोने लगा, कहने लगा- अब काहे बैठे हो तुम लोग...चलो पैदल चलते हैं, जइसे दिल्ली से हरियाणा गए पैदल, वइसे पटना से पूर्णिया जाएंगे...पूछने पर अर्रंवद फफक पड़ा, कहने लगा-हम सभी 13 लोग हरियाणा से आए हैं। रास्तें में दूसरे राज्यों की पुलिस हमें देखते ही खीरा, पानी, चूड़ा देने लगती थी। कई जगह तो गाड़ी रोक-रोक कर पुलिसवालों ने हमलोगों को खाना भी खिलाया, लेकिन अपनी ही राजधानी में कोई पूछने तक नहीं आया। हमलोग दो घंटे से यहां बैठे हैं, पुलिस वाले आ रहे हैं और देख कर चले जा रहे हैं...अर्रंवद अभी बोल ही रहा था कि तीन और प्रवासी पैदल पहुंचे। पूछने पर कहने लगे हमलोग नागपुर से आ रहे हैं। ट्रक ने मोड़ पर छोड़ दिया तो बस स्टैंड आ गए। यहां बस नहीं मिल रही है। पैदल समस्तीपुर चले जाएंगे...और धीरे-धीरे तीनों आगे बढ़ने लगे...। 

बाइपास बन गया है बेबसी का गवाह
हताश, निराश, बेबस...। माथे पर मोटरी-गठरी है। कंधे पर बैग है। पैरों में टूटही चप्पल है और फोड़े का दर्द है, लेकिन फोड़े के दर्द पर भूख का दर्द भारी पड़ रहा है। शहर छूटने, नौकरी छूटने का दर्द आंसू बन कर निकल रहा है। जी हां, राजधानी का बाइपास मजदूरों की बेबसी का गवाह बन रहा है। परदेस से लौट रहे बिहारी मजदूरों का दुख देख कलेजा फट रहा है। बाइपास पर हर वक्त मजदूर चलते हुए दिख रहे हैं। कोई साइकिल से जा रहा है, कोई पैदल तो कोई ट्रक पर बैठकर। मीठापुर मोड़ पर एक साथ दस मजदूर बैठे हैं। सब दिल्ली से पैदल पहुंचे हैं। झुंड में बैठे मजहर खाना खा रहे हैं। खाने में चार पूड़ी है और आलू की सब्जी है। बगल में बैठा 20 साल का कपिल भी खा रहा है। उमेश रजक उदास बैठे हैं। पूछने पर बोले, थोड़ी देर पहले संगठन वाले हमको दो पैकेट देकर चले गए। मजहर भाई दो दिन से भूखे थे और कपिल एक दिन से। हम अपना दोनों पैकेट दे दिए। आज हम चूड़ा फांक लेंगे और आगे कोई खाना देगा तो खा लेंगे...खाना खा रहे मजहर रोने लगे, कहने लगे- दो दिन बाद खाना मिला है। अब दिल्ली लौट कर कभी नहीं जाएंगे। 

बाइपास पर पुलिस जरूर है, लेकिन मजदूरों की परेशानी से इनको कोई लेना-देना नहीं है। बेऊर मोड़ पर धूप में छह मजदूर चले जा रहे हैं।  पूछने पर शंकर मांझी बोला, बिहार बॉर्डर से पहले पुलिसवाले बीच-बीच में पानी की बोतल दे रहे थे, लेकिन अपने बॉर्डर में आते ही कुछ नहीं मिला है। सुबह से कुछ नहीं खाएं हैं। आरा में तो पुलिस ने इतना जोर से हमको डंटा मारा कि पूरा हाथ फुल गया है।

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