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संस्कृत धर्मिक ग्रन्थों तक सीमित नहीं बौद्विक विकास में सहायक: डॉ झा

महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग द्वारा 'संस्कृत साहित्य में लोकमंगल की भावना' विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कुलपति प्रो. संजय श्रीवास्तव ने उद्घाटन सत्र...

Newswrap हिन्दुस्तान, मोतिहारीSun, 9 March 2025 10:56 PM
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 संस्कृत धर्मिक ग्रन्थों तक सीमित नहीं बौद्विक विकास में सहायक: डॉ झा

मोतिहारी, हि.प्र.। महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की ओर से संस्कृत साहित्य में लोकमंगल की भावना विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का रविवार को आयोजन किया गया। आयोजन के संरक्षक व अध्यक्ष कुलपति प्रो. संजय श्रीवास्तव थे। कार्यक्रम के संयोजक संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. श्याम कुमार झा को बनाया गया था। उद्घाटन सत्र में डॉ. श्याम कुमार झा ने स्वागत भाषण देते हुए अतिथियों का अभिनंदन किया और संगोष्ठी के विषय की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि संस्कृत साहित्य में लोकमंगल की भावना केवल धार्मिक ग्रंथों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समाज के नैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास में भी सहायक सिद्ध होती है। लोकमंगल की अवधारणा और संस्कृत साहित्य

बीज वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. प्रसून दत्त सिंह ने कहा कि संस्कृत साहित्य में लोकमंगल की भावना भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। उन्होंने वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता, कालिदास और भास जैसे महान कवियों और ग्रंथों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक कल्याण को प्राथमिकता दी गई है। उन्होंने वेदों की सामुदायिक भावना को रेखांकित करते हुए कहा कि भारतीय शास्त्रों में केवल व्यक्तिगत उन्नति पर नहीं, बल्कि समाज और संपूर्ण विश्व के कल्याण पर बल दिया गया है।

प्रो. मनोज कुमार (अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय) ने कहा कि चाणक्य, कालिदास, भवभूति और अन्य महान आचार्यों ने अपनी कृतियों में समाज सुधार, नीति और धर्म की महत्ता को उजागर किया है। प्रो. धनंजय मणि त्रिपाठी (संस्कृत विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली) ने कहा कि महाभारत व विष्णु पुराण के श्लोकों का उदाहरण देते हुए समझाया कि सच्चा योगी या विद्वान केवल अपने लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज के कल्याण की कामना करता है। उन्होंने पांच यज्ञों की अवधारणा को स्पष्ट किया, जिसमें प्रकृति, पूर्वजों, समाज, ज्ञान और देवताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का संदेश दिया गया है।

संस्कृत साहित्य व आयुर्वेद में लोकमंगल

प्रो. गोपाल लाल मीणा (संस्कृत विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली) ने संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद और लोकमंगल विषय पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि स्वस्थ शरीर और मन ही वास्तविक कल्याण का आधार हैं। उन्होंने चरक संहिता और सुश्रुत संहिता के उदाहरण देते हुए बताया कि आयुर्वेद केवल रोगों के उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संम्पूर्ण समाज के स्वास्थ्य और कल्याण की भावना से प्रेरित है। उन्होंने कहा कि सुख व्यक्तिगत हो सकता है, लेकिन मंगल सामूहिक होता है, और यह विचार संस्कृत साहित्य में गहराई से निहित है।

डॉ. भूषण कुमार उपाध्याय (पूर्व डीजीपी, महाराष्ट्र सरकार) ने कर्म और ज्ञान की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि वैदिक साहित्य का मूल संदेश केवल व्यक्तिगत उन्नति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामूहिक कल्याण से जुड़ा है।

कुलपति प्रो. संजय श्रीवास्तव ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में संस्कृत साहित्य व लोकमंगल की अवधारणा को आधुनिक संदर्भों में स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि वेदों, उपनिषदों और गीता में वर्णित जीवन के सिद्धांत आज भी हमारे समाज के लिए मार्गदर्शक हैं। उन्होंने कहा कि भगवद्गीता के अष्टाध्यायी सिद्धांतों में जीवन के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है, जो व्यक्तिगत आत्म-विकास के साथ-साथ सामाजिक उत्थान पर भी बल देते हैं। युवाओं को इन मूल्यों को आत्मसात करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि संस्कृत साहित्य केवल अतीत का गौरव नहीं है, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने वाला अमूल्य ज्ञान भी है।

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