परंपरागत कला संघर्ष के दौर से गुजर रही, मिट्टी के दाम में वृद्धि ने तोड़ी कमर
झाझा के कुम्हार समुदाय को अपने पुश्तैनी धंधे को बचाने में कठिनाई हो रही है। मिट्टी की कमी और बढ़ती लागत के कारण पारंपरिक कला संकट में है। बाजार में सस्ते विकल्पों की अधिकता से मिट्टी के बर्तनों की...
झाझा । निज प्रतिनिधि पुश्तैनी धंधे से लगाव पर नए जमाने के साथ कदमताल कर पाने का अभाव कुम्हार समुदाय के लिए हर रोज नई चुनौतियां खड़ी कर रहा है। कुम्हार समुदाय का संघर्ष पुराना है लेकिन वर्तमान के दौर में यह चुनौतियों और भी भारी पड़ रही हैं। मिट्टी की कमी और उचित संसाधनों के अभाव में उनकी परम्परागत कला दम तोड़ती जा रही है। पीढ़ियों से मिट्टी के बर्तन, दीये और कुल्हड़ तथा सीजन में मूर्तियां बनाकर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे कुम्हार वर्तमान में अपने पुश्तैनी धंधे को बचाने की जद्दोजहद के दौर से गुजर रहे हैं। वे आज मिट्टी की किल्लत और बाजार की कठिनाइयों के कारण अपने इस पुश्तैनी धंधे को छोड़ने को बाध्य हैं। शहर के बरमसिया में बसे कुम्हार समाज की सादगी और उनकी परंपरागत कला आज संघर्ष के दौर से गुजर रही है। सदियों पुरानी यह मिट्टी कला, जो कभी स्थानीय और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा थी, अब कठिनाइयों और अनदेखी के कारण विलुप्ति की कगार पर है। यहां के दर्जन भर से ज्यादा परिवार अपनी आजीविका चलाने की राह की बाधा भी दूर नहीं कर पा रहे है। दर्जन भर परिवार मिट्टी कला से जुड़े हैं। यह सभी कहते हैं कि समय के साथ मिट्टी की लागत में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। पहले मिट्टी किसान के खेतों से मुफ्त या मामूली कीमत पर मिल जाती थी। लेकिन, अब एक ट्रेलर मिट्टी खरीदने के लिए कम से कम दो हजार रुपये तक का खर्च करना पड़ता है। कुम्हारों का कहना है कि मिट्टी में कंकड़-पत्थर न हो और वह मुलायम होनी चाहिए। तभी इससे अच्छे बर्तन बनाए जा सकते हैं। ऐसे में मिट्टी की अनुपलब्धता कुम्हारों के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गई है। इसके साथ ही उनका कहना है कि बर्तन बनाने में मेहनत और खर्च दोनों बढ़ गए हैं। जहां पहले मिट्टी सस्ती थी, वहीं अब इसकी कीमत बढ़ने के कारण उनके बर्तनों की लागत भी बढ़ गई है। लेकिन, बाजार में इनके बर्तनों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। हमारी मेहनत का दाम अब नहीं मिल पाता है। मिट्टी, बिजली और अन्य खर्चों के बाद हमारी आमदनी बहुत कम रह जाती है। इसी कारण परिवार चलाना मुश्किल होता जा रहा है। हमारे पुश्तैनी धंधे को छोड़ने का मन नहीं करता, लेकिन आर्थिक तंगी इससे दूर होने को मजबूर कर रही है। इसके अतिरिक्त, आधुनिक प्लास्टिक, थर्मोकोल और स्टील के बर्तनों की अधिकता ने बाजार में मिट्टी के बर्तनों की मांग को और भी कम कर दिया है। उपभोक्ताओं का रुझान पारम्परिक उत्पादों से हटकर सस्ते और टिकाऊ विकल्पों की ओर हो रहा है।
बर्तन पकाने की भट्ठी का खर्च भी पड़ रहा भारी
बर्तन पकाने के लिए बड़ी भट्ठियों की आवश्यकता होती है। इस के लिए गोयठा, पुआल, कोयला और लकड़ी का उपयोग करना पड़ता है। यह सारी चीजें इतनी महंगी हो गई हैं कि कुम्हारों के काम को और भी मुश्किल बनाती जा रही है। घटती आमदनी और बढ़ते संघर्ष ने कुम्हार जाति के लोगों को अपना पारंपरिक काम छोड़ने को मजबूर कर दिया है। अनेक मिट्टी के कलाकार कहते हैं कि हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी भी इस काम को सीखे और आगे बढ़ाए। लेकिन, अगर स्थिति नहीं सुधरी, तो वे कभी अपनी मिट्टी अर्थात अपने पारम्परिक कारोबार से जुड़ ही नहीं पाएंगे।
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