बोले गया: प्रशिक्षण केंद्र और आर्थिक मदद की आस में बढ़ई समाज के युवा
बढ़ई समाज लकड़ी के सामान बनाने वाला एक पारंपरिक समुदाय है। आधुनिकता और सस्ते विकल्पों के कारण उनकी स्थिति दयनीय होती जा रही है। लकड़ी के फर्नीचर की मांग में कमी आ रही है और बढ़ई अब मजदूरी करने के लिए...

बढ़ई समाज लकड़ी से जुड़ा काम करने वाला समाज है। आज जो लोग फर्नीचर, बर्तन, सजावटी सामान, खिलौने और संगीत वाद्ययंत्र जैसी चीजें बनाते हैं। उनमें लकड़ी का काम करने वाला ज्यादातर लोग बढ़ई समाज के ही होते हैं। ये लकड़ी का अलग-अलग बहुत सारे आकर्षक सामान बनाते हैं। लेकिन, बढ़ई समाज की स्थिति दिनों-दिन दयनीय होती जा रही है। लकड़ी को आकार देने की कला, जो कभी इस समाज की पहचान थी। उनका अस्तित्व संकट से जूझ रहा है। बढ़ई समाज का यह पुश्तैनी व्यवसाय कई पीढ़ियों से चलता आ रहा था। अब आधुनिकता की मार झेल रहा है। एल्यूमिनियम, प्लास्टिक और अन्य सस्ते विकल्पों के कारण लकड़ी के फर्नीचर और अन्य वस्तुओं की मांग तेजी से घट रही है। इसके चलते इस समुदाय के लोग मजबूरी में मजदूरी करने पर विवश हो रहे हैं। बड़ी संख्या में लोग दूसरे प्रदेशों में पलायन भी कर चुके हैं। वैदिक काल में बढ़ई समाज के लोग यज्ञ वेदी बनाते थे, अरणी मंथन करते थे, यज्ञ पात्र बनाते थे, मंदिर बनाते थे, मंदिरों में मूर्ति बनाते थे और चित्रकारी करते थे। इन्हें "तरखान" भी कहा जाता है। लकड़ी का सामान बनाना और उसकी मरम्मत करना इनका मुख्य काम रहा है। प्राचीन काल से ही बढ़ई समाज के लोग समाज के प्रमुख अंग रहे हैं। बढ़ई समाज का पुश्तैनी व्यवसाय जो कई पीढ़ियों से चलता आ रहा था, अब आधुनिकता की मार झेल रहा है। जिले में बढ़ई समाज के लोग सदियों से लकड़ी पर नक्काशी और विभिन्न प्रकार के फर्नीचर बनाने का कार्य करते आए हैं। दरवाजे, खिड़कियां, चौखट, कुर्सियां, टेबल और घर के अन्य लकड़ी के सामान बनाने में इनकी कुशलता की मिसाल दी जाती थी। लेकिन अब इस पारंपरिक व्यवसाय को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अब बाजार में लकड़ी के चौखट और दरवाजों की जगह एल्यूमिनियम और स्टील के दरवाजे, प्लास्टिक की कुर्सियां, टेबल आदि ने ले ली है। ये सस्ते भी होते हैं और हल्के भी, जिससे लोग इन्हें प्राथमिकता देने लगे हैं। पहले बढ़ई समाज के लोगों के लिए यह व्यवसाय आरक्षित था। लेकिन, अब अन्य वर्गों के लोग भी इस क्षेत्र में आ गए हैं। इससे बढ़ई समाज के लोगों के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है और उनके लिए काम के अवसर कम हो गए हैं। बाजार में मांग घटने के कारण इस समाज के लोग मजबूरी में दूसरे व्यवसायों की ओर रुख कर रहे हैं। लेकिन, अन्य क्षेत्रों में उनके पास कोई विशेष कौशल नहीं होने के कारण वे मजदूरी करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। पहले जहां एक बढ़ई पूरे साल अपने काम में व्यस्त रहता था। अब उन्हें काम की अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें महीने में कुछ ही दिन काम मिलता है, जिससे उनका जीवन यापन कठिन हो गया है।
परंपरागत कारीगरी पर आधुनिकता का साया है
लकड़ी के सामान बनाने में बढई समाज की कुशलता की मिसाल सदियों से दी जाती रही है। लेकिन, वर्तमान समय में इस पारंपरिक कारीगरी पर आधुनिकता का साया हो गया है। लकड़ी की चौखट और दरवाजा की जगह एल्यूमिनियम और प्लास्टिक ने ले लिया है, जिसके कारण इस व्यवसाय को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ई समाज की कला को संरक्षित करना केवल उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने का जरिया ही नहीं है। बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर को बचाने का एक महत्वपूर्ण कदम भी है। अगर सही रणनीति अपनाई जाए तो बढ़ई समाज न केवल आर्थिक रूप से सशक्त होगा, बल्कि आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में भी योगदान देगा। डिजिटल मार्केटिंग और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म का उपयोग करके उनके उत्पादों को बड़े बाजारों तक पहुंचाया जा सकता है।
काम में मेहनत ज्यादा और मजदूरी कम मिलती है
लकड़ी से फर्नीचर तैयार करना काफी मेहनत का काम होता है। साथ ही लकड़ी से बना पलंग, कुर्सी, टेबल, सोफा, दरवाजा, चौखट आदि फर्नीचर का सामान टिकाऊ भी काफी होता है। जितना अधिक दिनों तक ये सामान उपयोग होते रहता है। उतना एल्यूमिनियम और प्लाई का सामान टिकाऊ नहीं होता है। लकड़ी का सामान तैयार करने वाले बढई मिस्त्री को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है और उनके मेहनत के मुताबिक उन्हें मजदूरी कम मिलती है, जिसके कारण उनके आगे आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। लोगों में अब अवधारणा बनती जा रही है कि वो कम दाम के चक्कर में लकड़ी को छोड़ एल्यूमिनियम और स्टील के दरवाजे, प्लास्टिक की कुर्सियां, टेबल आदि खरीदने लगे हैं। जो ज्यादा टिकाऊ नहीं होता है।
समस्या
1. एल्यूमिनियम और प्लास्टिक की वस्तुओं के प्रचलन ने बढ़ई समाज के रोजगार की संभावनाओं को सीमित कर दिया है। साथ ही बाजार में लकड़ी की मांग में भी गिरावट आयी है।
2. बढ़ई समाज में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। इसके कारण उन्हें सरकारी योजनाओं और नई तकनीकों की जानकारी नहीं हो पाती है।
3. पारंपरिक कार्य अब पहले जैसा सम्मानजनक नहीं रह गया है। पहले बढ़ई समाज के लोगों के लिए यह व्यवसाय आरक्षित माना जाता था। अब अन्य वर्गों के लोग भी इस क्षेत्र में आ गए हैं।
4. बढ़ई समाज के लोगों के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है और उनके लिए काम के अवसर कम गए हैं। ऐसे में काम के अभाव में बढई समाज के लोग दूसरे प्रदेशों में पलायन कर रहे हैं।
5. आर्थिक स्थिति सही नहीं होने के कारण बढ़ई समाज के बच्चों में शिक्षा और जागरूकता की कमी है। गरीबी के कारण कई बच्चें प्राथमिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई छोड़ देते हैं।
समाधान
1. बढ़ई समाज के हस्तशिल्प को प्रमोट करने के लिए विशेष योजनाएं बननी चाहिए, जिसमें उनके द्वारा बनाए उत्पादों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करने की व्यवस्था बननी चाहिए।
2. सरकारी योजनाओं में प्राथमिकता के आधार पर लकड़ी से बने फर्नीचर की खरीदारी होनी चाहिए। साथ ही सरकारी भवनों, विद्यालयों और कार्यालयों में लकड़ी के फर्नीचर की अनिवार्यता सुनिश्चित की जाए।
3. बढ़ई समाज के युवाओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र खुलना चाहिए। जहां उन्हें आधुनिक तकनीकों और डिजाइनिंग के बारे में सिखाया जा सके।
4. बढ़ई समाज के लोगों को सस्ते दरों पर ऋण उपलब्ध होना चाहिए। जिससे वे नई मशीनें और उपकरण खरीद सकें। साथ ही छोटे उद्यमियों को आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए। ताकि वे अपना व्यवसाय दुबारा शुरू कर सकें।
5. सरकार को बढ़ई समाज के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्ति की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि वो प्रारंभिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई कर सकें।
पारंपरिक व्यवसाय को पुनर्जीवित करने के लिए करने होंगे सामूहिक प्रयास
बोधगया। कंपटीशन के इस बाजार में बढ़ई समाज की वर्तमान स्थिति बहुत बेहतर नहीं है और चुनौतियां भी काफी है। दूसरे वर्गों का जब इस क्षेत्र में हस्तक्षेप बढ़ा। तब से बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है और उनके लिए काम के अवसर काफी कम गए। लकड़ी के फर्नीचर बनाने की तुलना में मजदूरी का काम कम आय देने वाला होता जा रहा है, जिसके कारण कई लोग मजबूरी में दैनिक मजदूरी या दूसरे प्रदेशों में काम करने चले जाते हैं। इससे उनका पारंपरिक कौशल भी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। लकड़ी का लोकल बाजार उपलब्ध नहीं है और बाहर से आने वाले लकड़ियों की कीमत भी आसमान छूता है। इस कारण लोग लकड़ी के फर्नीचर से दूर होते जा रहे हैं। एल्यूमिनियम और प्लास्टिक की वस्तुओं के प्रचलन ने इनके काम को काफी नुकसान पहुंचाया है। बढ़ई समाज के पूना शर्मा, रविन्द्र कुमार, मनोहर मिस्त्री, नरेश शर्मा, अर्जुन मिस्त्री सहित अन्य लोगों का कहना है कि सरकार गरीब और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए कई योजनाएं चला रही है। लेकिन बढ़ई समाज के लोगों को इन योजनाओं की जानकारी ही नहीं होती है। सरकार की प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, मुद्रा लोन योजना, उद्यमी योजना आदि। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बढ़ई समाज के लोग इन योजनाओं से काफी हद तक वंचित हैं। सरकारी योजनाओं के लिए आवश्यक दस्तावेजी प्रक्रियाएं कठिन और जटिल होती है। जिससे भी कम पढ़े-लिखे लोग इसका लाभ नहीं ले पाते हैं। साथ ही बच्चों को शिक्षा की ओर अधिक ध्यान नहीं देने का एक बड़ा कारण उनकी आर्थिक स्थिति भी है। गरीबी के कारण कई बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और काम में लग जाते हैं। इस समाज के लोगों को यदि आज भी आधुनिक डिजाइनिंग और मशीनरी के उपयोग की जानकारी दी जाए तो अपने पारंपरिक व्यवसाय को नई ऊंचाईयों तक ले जा सकते हैं। लेकिन इनके पास न तो संसाधन है और न ही प्रशिक्षण लेने की कहीं सुविधा। इस पारंपरिक व्यवसाय को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार, समाज और स्वयं बढ़ई समाज के लोगों को मिलकर सामूहिक प्रयास करने होंगे। परंपरागत व्यवसाय को आधुनिक तकनीक से जोड़कर, उन्हें शिक्षा और आर्थिक सहायता देकर, तथा उनके उत्पादों का सही विपणन करके इस संकट को दूर किया जा सकता है।
बढ़ई समाज के लोगों ने रखीं बातें
1- बाजार में रेडीमेड फर्नीचर के सामान उपलब्ध हो जाने के कारण हमलोगों का व्यवसाय बहुत प्रभावित हुआ है। यही कारण फर्नीचर कारीगरों को रोजाना काम नहीं मिल रहा है। इससे हमलोग आए दिन नए-नए परेशानीयों का सामना करना पड़ता है। अब दूसरे काम के प्रति रुख कर रहे हैं।
-नरेश मिस्त्री।
2- बड़े-बड़े अपार्टमेंट में फर्नीचर और प्लास्टिक के बने सामान का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है। यहि कारण है कि हमलोगों के व्यवसाय पर अब धीरे-धीरे ग्रहण लगते जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि एक महीने में 15 दिन ही काम मिल पाता है। बाकी के 15 दिन काम के तलाश मे इधर-उधर भटकते रहते हैं।
-पूना शर्मा।
3- बाजार में कंपटीशन इतना ज्यादा बढ़ गया है कि कम कीमत मे कारीगर काम करने को मजबूर हैं। लकड़ी की कीमत बाजर में आसमान छू रहा है। लेकिन, कारीगरों का मजदूरी नहीं बढ़ रही है। अब इस काम से घर परिवार का जीविकोपार्जन करने मेंपरेशानी हो रहा है।
-विनोद मिस्त्री।
4-बढ़ई समाज की समस्या बहुत तरह के हैं। लेकिन, इसके समाधान के लिए सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। इससे पारंपरिक व्यवसाय इन दिनों हास्य स्थिति में आ गया है। व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए दुकानदारों को निम्न ब्याज पर बैंक से ऋण देने की व्यवस्था होनी चाहिए। तब हमलोग अपना व्यवसाय कर पाएंगे।
-राजदेव मिस्त्री।
5- बोधगया में कारीगरी का काम कर अपना जीविकोपार्जन अच्छे तरीके से चला लेते हैं। लेकिन, हमारे समाज के बहुत ऐसा व्यक्ति हैं जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं। उनके पास अपनी दुकान नहीं है। वह दूसरे के यहां मजदूरी करने को मजबूर हैं। नियमित काम नहीं मिलने से वह अपना परिवार चलाने मे सक्षम नहीं है।
-नरेश शर्मा।
6- बोधगया में लकड़ी की दुकान है। अब दुकान की स्थिति ठीक नहीं है। अब पहले जैसा काम नहीं मिल रहा है। दुकान का किराया भी धीरे-धीरे बढ़ते जा रहा है। उसके अनुसार मुनाफा नहीं हो रहा है। दुकान चलाने के लिए विशेष पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। हमलोगों के पास पूंजी का अभाव है। इस लिए अपना रोजगार विस्तार नहीं कर पा रहे हैं।
-अर्जुन मिस्त्री।
7-मैं दूसरे के यहां काम करता हूं। जब काम मिलता है तो करते हैं बाकी के दिनों में काम की तलाश मे इधर-उधर भटकते रहते हैं। इससे परिवार का भरण-पोषण करने में काफी दिक्कत होती है। नियमित काम नहीं मिलने की वजह से अब हमलोग दूसरे काम की तलाश में जुट गए हैं।
-जितेंद्र मिस्त्री।
8- हमलोगों का व्यवसाय अब हास्य की स्थिति में आ गया है। अब इस काम से भोजन चलना मुश्किल होते जा रहा है। जो काम एक महीना तक चलाता था वह एक सप्ताह में मशीन से खत्म कर दिया जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि बढ़ई का काम करने वाले अधिकतर कारीगरों को रोजाना काम तक नहीं मिल पा रहा है।
-संजय शर्मा।
9- बढ़ई समाज के काम में अब दूसरे वर्ग का भी हस्तक्षेप हो गया है। अब बड़े- बड़े उद्योगपति ठेकेदारी पर काम ले लेता है और वही काम हमलोग से निम्न मजदूरी पर रखकर करवाते हैं। मजबूरी में काम ज्यादा लेता है और मजदूरी कम देता है। हमलोग भी कुछ नहीं बोल सकते हैं चुकी कल वही काम करना हैं।
-अरुण मिस्त्री।
10- महीने में मुश्किल से 15 दिन ही काम मिल पाता है। यहां एक दिन की मजदूरी पांच सौ मिलती है। महीने में सात हजार रुपये होता है। ऐसी परिस्थिति में घर चलाए की बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला कराए। जिंदगी में बहुत उलझने समाने आ रहे हैं। काम की तलाश में अब दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में काम करने जाना पड़ता है।
-सोनू शर्मा।
11-पूंजी के अभाव में ठेकेदार के पास काम करते हैं, जिससे घर-परिवार चल रहा है। उतनी पूंजी नहीं है कि खुद का काम कर सकूं अब कारीगरों की स्थिति यह हो गई है कि कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार को सहयोग करने की आवश्यकता है। व्यवसाय करने में पूंजी की जरूरत पड़ती है। यह हमलोगों के पास नहीं है। अगर सरकार सहयोग करेगी तो इस क्षेत्र में बेहतर काम कर पाएगें।
-जीतू मिस्त्री
12-अब इस काम में हमलोगों को ज्यादा उम्मीद नहीं रही। इसका कारण है कि अपना काम करने में अधिक पूंजी निवेश करनी पड़ती। पूंजी हमलोगों के पास नहीं है। अब इस काम को छोड़कर कोई दूसरे काम की तलाश में हैं। हमारी आने वाली पीढ़ी इस काम को नहीं करेगी। हमलोग भी चाहते हैं कि बच्चे यह काम छोड़कर कोई दूसरा काम करे।
-राजेश शर्मा।
13- सरकार द्वारा चलाई जा रही विश्वकर्मा योजनाए का फायदा हमलोग तक नही पहुंच पाया है। कई बार लोन के लिए बैंक से संपर्क भी किया। लेकिन, अब तक नहीं मिल पाया। जितने पेपर की मांग की गई वह सब पेपर दिया फिर भी लोन नहीं मिल पाया। दूसरे के यहां काम करने पर समय से मजदूरी तक नहीं मिल पाता है।
-बिक्रम शर्मा।
14- सरकारी भवन में बड़े-बड़े ठेकेदारों को ठेका मिल जाता है। इससे स्थानीय कारीगरों को काम तक नहीं मिल पाता है। वह अपने आसपास से कारीगर को लेकर आते हैं और काम करवाते हैं। वह भी हमलोगों को नियमित काम पर रखे तो उससे भी रोजगार उपलब्ध होगा।
-रवीन्द्र कुमार।
15- पुस्तैनी काम में दूसरे वर्ग के लोगों का हस्तक्षेप होने के कारण हमलोग अपना ही काम से धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं। दूसरे वर्ग वाले के पास अधिक पूंजी होती है। वह रोजगार को बड़ी आसानी से विस्तार कर देते हैं। हमलोग के पास पूंजी निवेश करने का कोई जरिया नहीं है। जिससे हम कुछ नहीं कर पाते हैं।
-रंजन कुमार।
16- हमलोगों के काम पर असर पड़ने का सबसे बड़ा कारण है कि बाजर में सभी तरह के ( रेडीमेड) बना बनाया हुआ सामान उपलब्ध हो गया है। ग्राहकों को भी सुविधा होती है। बाजर जाते हैं और रेडीमेड बना हुआ सामान सस्ते दामों पर खरीद लेते है। इससे भी हमलोगों के रोजगार पर खासा असर पड़ा है।
-ललन कुमार।
17-कंपटीशन के दौर में कभी-कभी मजदूरी तक नहीं बच पाती है। फिर भी हमलोग काम करते हैं। मजबूरी है परिवार का बोझ है किसी तरह काम करना पड़ता है। बाजार में बड़ी-बड़ी कंपनियों के बढ़ते प्रभाव के कारण स्थानीय रोजगार चरमरा गयी है और धीरे-धीरे हमलोग का पूछ कमते जा रही है।
-संजीत मिस्त्री।
18- बढ़ई समाज के लोग अब पारंपरिक पेशे को छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। पहले के लोग लकड़ी से बनी कुर्सी टेबल, दरवाजा और अन्य प्रकार के वस्तुओ को बनाते थे। अब प्लास्टिक और एल्युमुनियम के वास्तु को बाजर में आ जाने से सीधे हमलोगों के व्यवसाय पर असर पड़ने लगा है।
-केदार मिस्त्री।
19- हमलोगों के पूवर्जों का लकड़ी का सामान बनाना पेशा है। लकड़ी से कई प्रकार के सामान बनाते थे। लेकिन, इन दिनों आधुनिकरण हो जाने से रोजगार पर संकट मंडराने लगा है। अब मजदूर से ज्यादा काम मशीने करने लगी है। इस लिए सरकार से मांग है कि हमलोग के पारंपरि पेशे का अस्तित्व को बचाने के लिए सरकार को पहल करना चाहिए।
-पवित्र मिस्त्री।
20- आधुनिकरण होने के कारण हमलोगों के बनाए हुए सामान की तुलना में बड़ी-बड़ी कंपनी कम कीमत में सामान उपलब्ध करा रही हैं। ऊपर से सेल और डिस्काउंट देकर ग्राहकों को आकर्षित करती है। इसके कारण यहां के दुकानदार और कारीगर को टिक पाना मुस्किल हैं।
-मनोहर मिस्त्र।
प्रस्तुति: रविशंकर-पप्पू कुमार
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