बोले गया: मांग कम हुई तो पीतल के बर्तन की फीकी पड़ी चमक
गया जिले के वजीरगंज प्रखंड के केनार गांव में कांसा-पीतल बर्तन उद्योग अब संकट में है। पहले इस उद्योग से लगभग सौ परिवार जुड़े हुए थे, लेकिन अब केवल पांच परिवार ही इस व्यवसाय को जारी रखे हुए हैं।...
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गया जिले के वजीरगंज प्रखंड के केनार गांव के कांसा-पीतल बर्तन उद्योग की उत्कृष्ट पहचान एक जमाने में बिहार, यूपी सहित देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित रहा। कांसे-पीतल का बर्तन उद्योग समुचित सुविधाओं के अभाव में आज विलुप्त के कागार पर खड़ा है। इस व्यवसाय से गांव के करीब एक सौ परिवार जुड़े थे, जिनका भरण-पोषण का यही एकमात्र साधन था। लेकिन, सरकार ने कभी इस उद्योग पर नजर नहीं डाली। इस कारण यह उद्योग समुचित संसाधन के अभाव में दम तोड़ रहा है। गया जिले के वजीरगंज प्रखंड के केनार में कांसा और पीतल के बर्तन का घरेलू उद्योग अपने आप में कई इतिहास समेटे हुए हैं। यहां के बर्तन हाथों से बनाए जाते हैं और यह पूरे बिहार में कांसा उद्योग में सबसे प्रमुख माना जाता है। यहां के बर्तन बिहार सहित देश के अन्य कई प्रमुख राज्यों तक जाते हैं। यहां कसेरा समाज के एक सौ परिवार जिसकी आबादी लगभग चार सौ है जो पुरखों से आज तक इस उद्योग को करते चले आ रहे हैं। एक सौ परिवारों में अब केनार में मात्र पांच परिवार ही इस उद्योग के जरिए बर्तन बनाने का काम करते हैं। बाकी लोग जहां कई फेरी करने लगे हैं। वहीं, कई यहां से पलायन कर चुके हैं, जबकि इनकी कई पीढ़ियां बर्तन बनाने की कला आज भी जीवित रखे हुए हैं। केनार के इस उद्योग के लिए आजादी से लेकर अब तक किसी भी सरकार या जनप्रतिनिधि ने इसकी चमक बरकरार रखने के लिए जमीनी स्तर पर कोई भी ठोस कदम नहीं उठाए हैं। इसके कारण इस घरेलू कांसा-पीतल बर्तन उद्योग की चमक फीकी पड़ती जा रही है। परंपरागत उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार लाख दावे करती है, लेकिन इन दावों की जमीनी हकीकत इसकी सच्चाई बयां कर रही हैं।
आधुनिकता के दौर में विलुप्त होते जा रहे कांसे-पीतल के बर्तन : आधुनिकता के इस दौर में लोग आकर्षक स्टील व प्लास्टिक से बने बर्तनों को अपने जीवन में शामिल कर रहे हैं, जिसके चलते बाजारों से कांसे-पीतल के बर्तन विलुप्त होते जा रहे हैं। एक समय रहा जब कांसा-पीतल बर्तन उद्योग केनार की शान कही जाती थी। लेकिन, कांसा-पीतल शिल्प कला की धरोहर अब लुप्त होने की कगार पर है। आज बाजारों में स्टील और प्लास्टिक सिल्वर के बर्तन आ जाने से कांसे-पीतल का व्यापार ठप होता नजर आ रहा है। यह उद्योग अब विलुप्त की कगार पर है।
केनार के हर घर से सुनाई देने वाली टक-टक की आवाज अब पांच घरों तक सिमट कर रह गई : पहले के समय में केनार में बर्तन बनाने की टक-टक की आवाज हर घर में सुनाई देती थी। लेकिन, यह आवाज आज सिमटकर केवल पांच घरों तक ही सीमित रह गई है। कांसे-पीतल के बर्तन बनाने वाले कारीगर भी अब रोजी-रोटी के लिए मोहताज हो रहे हैं। वह दिन दूर नहीं कि जब कांसे-पीतल के बर्तन का कारोबार पूरी तरह से विलुप्त हो जाएगा।
पूरे देश में होती थी केनार के निपुण कारीगरों के बनाए बर्तनों की मांग : दो दशक पहले तक केनार में कांसा पीतल के बर्तन बनाने का काम घर-घर में हुआ करता था। केनार में कई ऐसे निपुण कारीगर रहे हैं जिनके द्वारा बनाए गए बर्तनों की मांग न केवल बिहार बल्कि पूरे देश में हुआ करता था। लेकिन, आधुनिकता की चकाचौंध ने न केवल इन कारीगरों को बेरोजगार कर दिया है बल्कि इस व्यापार को भी लुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया है। कांसे और पीतल के व्यापार से जुड़े लोगों की मानें तो केनार के लगभग 95 फीसदी कारीगरों ने यह व्यापार बंद कर दिया है। कांसा-पीतल के बर्तन बनाए जाने के लिए मशहूर केनार गांव में जहां खासी रौनक रहती थी, आज वहां सूनी पड़ी हैं।
हमारी भी सुनिए : स्टील, एल्यूमिनियम व फाइबर से कांसा-पीतल की मांग घटी
सैंकड़ो वर्ष का इतिहास संजोए केनार में बसे लगभग एक सौ कसेरा परिवार अब पारंपरिक रोजगार छोड़ने को मजबूर दिख रहे हैं। अधिकांश ने तो अपना पेशा बदल भी लिया है। इस पतन का कारण पूछने पर समुदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले कांसा और पीतल धातु के बने बर्त्तन ही इस्तेमाल होते थे। इसलिये यह रोजगार सार्थक था, लेकिन अब लोग स्टील एवं एल्यूमिनियम तथा फाइबर से बने बर्तनों का उपयोग कर रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि इन धातुओं से बने बर्तन महंगे हो गये हैं। बर्तन पहले भी इसी प्रकार महंगे थे, लेकिन मिट्टी और कांसा-पीतल के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। केनार में जब बड़ा परात या कठौत बनता था तो कई किलोमीटर दूर तक इसे पीटने की आवाज जाती थी।
बच्चियों के शादी विवाह में अभी भी कांसा-पीतल का बर्त्तन उपहार में देने का प्रचलन है, लेकिन ज्यादा महंगा होने के कारण लोग स्टील के बर्तन व दूसरी वस्तुएं खरीदकर उपहार देते हैं, जिसके कारण कांसा-पीतल के बर्तन का बाजार उदास होते जा रहा है। कांसा-पीतल के बर्तन को बनाने से लेकर बेचने वालों में निराशा फैलते जा रहा है, जिसके कारण कई लोग फेरी, हाट एवं मजदूरी करने में जुट गये हैं। सरकार ने भी कभी इस समाज के लिये कोई खास कदम नहीं उठाया है जिसके कारण समस्याएं बढ़ती चली गई। जिस केनार में सभी घरों के कसेरे दिनरात कांसा-पीतल के बर्तन बनाने में जुटे रहते थे, अब वह देखने को नहीं मिलता है। पूरे समाज में अब मात्र दस प्रतिशत लोग ही इस पुस्तैनी धंधे से जुड़े हैं। सरकार अभी भी अगर इन समुदाय के प्रति उदारता नहीं दिखाती है तो इनका पुश्तैनी कार्य तो छूट ही जायगा, बाद में उबारना मुश्किल हो जायगा। एक ही छोटे से घर में अभी भी बीस से तीस लोग रहने को मजबूर हैं।
सरकारी मदद से बर्तन उद्योग की लौटेगी रौनक
फतेहपुर। केनार के कांसा-पीतल बर्तन उद्योग पर संकट के बदल छाने से यहां रहने वाले कसेरा परिवार के समक्ष जीविकोपार्जन की बड़ी समस्या बन गई। पहले बर्तन बनाकर कसेरा परिवार अच्छी खासी आमदनी कर अच्छे से जीवन यापन कर ले रहे थे। लेकिन, अब वे बेरोजगार हो गए हैं, जो पहले छोटे घरेलू उद्योग के मालिक थे, बाद में कारीगरी पर बर्तन बनाने लगे। अब वे किसी के मजदूर बन गए हैं। इनमें से कुछ फेरी कर किसी यह जीविकोपार्जन का जुगाड़ कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग रोजी-रोटी की तलाश में गांव से पलायन कर गए हैं।
अर्जुन कसेरा, धनपत कसेरा, पंकज कसेरा, गोरेलाल कसेरा, दिलीप कसेरा, धर्मेंद्र कसेरा, बालमुकुंद कसेरा, चंदन कसेरा, दिलीप कसेरा, कंचन देवी, मंजू देवी, रेणु देवी आदि ने बताया कि 20 साल पहले तक केनार में करीब एक सौ परिवार इस काम से जुड़े थे। बाहर से व्यापारी माल लेने आते थे। पुराना माल लेकर वे भी आते थे जिसे हम लोग गलाकर रिपेयरिंग कर देते थे। अब यह काम दो-चार घर में होता है, वो भी लगन के हिसाब से बनता है। कुछ लोग फेरी करता है। कुछ लोग बाहर चले गए। उन लोगों ने बताया कि जब से वे होश संभाले हैं सरकार से कोई लाभ नहीं मिला है। बहुत से विधायक आए। यहां से फोटो भी ले गए। आश्वासन देकर गए आपका उद्योग बढ़ाएंगे। लेकिन, फिर लौटकर नहीं आए। इससे हमलोगों का आशा टूट गया तो हमलोग पेट पालने के लिए दूसरा-दूसरा रोजगार करना शुरू कर दिए।
आदिवासी जीवन जीने को विवश है कसेरा समुदाय के लोग : लोगों ने कहा कि कसेरा समुदाय के लोगों की स्थिति काफ़ी दयनीय है। वे बाल-बच्चों के साथ मजदूरी करके किसी तरह अपनी जीविका चला रहे हैं। कसेरा के लोग शिल्पकार भी कहलाते है। लेकिन दुर्भाग्यवश दर-दर जाकर फेरी कर अपना जीवन बसर करने को मजबूर है।
सुझाव और शिकायतें
1. कांसा और पीतल के बर्तनों में खाना बनायें और परोसें, इससे बिमारियां नहीं होंगी। पेयजल भी दूषित होने से बचेगा।
2. शादी-विवाह सहित अन्य अवसर पर अपने सामर्थय के अनुसार छोटे-बड़े बर्तन उपहार के रूप में दें। वह खराब आर्थिक स्थिति के समय मददगार होगा।
3. स्थानीय स्तर पर बनाने वाले कारिगरों से खरिदे गये बर्तनों में शुद्धता मिल सकेगी। केमिकल से चमकदार बर्तनों के झांसे में न आयें।
4. कसेरा समाज को अति पिछड़ा या अनुसूचित जाति में शामिल करने से आर्थिक स्थिति सुधरेगी और शैक्षणिक विकास हो सकेगा।
5. कसेरा समाज को ब्याज मुक्त और सरकारी सहयोग के साथ पूंजी उपलब्ध करायी जाय, यह कसेरा सहित सभी वर्गों के हित में होगा।
1. टीन, स्टील और एल्यूमिनियम धातू के बने बर्तनों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। अब प्लास्टिक जगह ले रहा है, जो हमारे स्वास्थ के लिये जहर साबित हो रहा है।
2. कसेरा समाज शुरू से समाज का एक अभिन्न हिस्सा रहा है, जिसे आज के परिवेश में सामाजिक और राजनीतित क्षेत्र से दूर किया जा रहा है।
3. सरकार ने कभी भी कसेरा जाति के लिए अच्छी सोच नहीं रखी, जिसके कारण कसेरा समाज की दुर्गति हो रही है।
4. कांसा-पीतल का कच्चा माल उपलब्ध कराने और तैयार माल बाजार में बेचने के लिए सरकारी तंत्र का सहयोग नहीं मिला, जिसके कारण हम आज भी राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय बाजार में जगह नहीं बना सके।
5. आधुनिक मशिनों को सरकारी अनुदान पर उपलब्ध कराते हुए उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिये थी, जो अभी तक नहीं हो सका।
कसेरा समाज के लोगों ने रखीं बातें
सप्ताह में दो-तीन दिन ही भट्ठी का काम होता है। पूरे दिन में पांच सौ से अधिक की कमाई नहीं होती। एक भट्ठी पर तीन लोग काम करते हैं। महंगाई की मार है। लेकिन, दूसरा काम
नहीं मिलने के कारण यही करना पड़ रहा है।
-अर्जुन कसेरा
पीतल के बर्तनों को खरात पर चढ़ाकर हम तराशते और निखारते हैं। लेकिन, हमारी किस्मत को कौन निखारेगा। नेता और सरकार अपने में मस्त हैं। अब पुस्तैनी धंधा से घर चलाना बहुत मुश्किल हो गया है।
-बालमुकुन्द कसेरा
भट्ठी से आए पीतल के बर्तनों को थाप से सही आकार दे-देकर भी पूरे दिन की मजदूरी नहीं मिल पाती है। इस लिए दुकान भी खोल रखी है। लेकिन, व्यापार में कोई खास विकास नहीं हो रहा है। पीतल और कांसा के बर्त्तनों का अब नाम ही रह गया है।
-बिरजु कसेरा
पारंपरिक रोजगार से अब पेट चलाना मुश्किल हो गया है। इस लिए हमलोग अब दूसरा रोजगार करने का प्रयास करते हैं। काफी संघर्ष के बाद भी कोई विकास नहीं होने के कारण यह मजबूरी बनी है। कांसा-पीतल के बर्त्तनों के नाम से विख्यात केनार अब पहचान खोते जा रहा है।
-बिट्टू कसेरा
केनार से आसपास के दो तीन किलोमीटर तक बर्तन पीटने की आवाज जाती थी। लेकिन, अब इसका शोर इतना कम हो गया है कि बाजार में भी देखने से पता चलता है कि किसके यहां बर्त्तन बन रहा है। अगर सरकार अभी भी ध्यान दे तो बहुत कुछ बदला जा सकता है।
-चंदन कसेरा
केनार से आसपास के दो तीन किलोमीटर तक बर्तन पीटने की आवाज जाती थी। लेकिन, अब इसका शोर इतना कम हो गया है कि बाजार में भी देखने से पता चलता है कि किसके यहां बर्त्तन बन रहा है। अगर सरकार अभी भी ध्यान दे तो बहुत कुछ बदला जा सकता है।
-चंदन कसेरा
मैं अभी तक पारंपरिक पेशा से ही जुड़ा हूं। सरकार व जनप्रतिनिधियों से आशा है कि हमारे इस रोजगार को भी बढ़ावा दिया जायगा। नहीं तो हमलोग केवल नाम के कसेरा रह जायेंगे। कारिगरी सीखने और उसके इस्तेमाल में आधा जीवन खो दिया हूं।
-धनपत कसेरा
मैं अभी पढ़ाई कर रहा हूं, आगे भविष्य में क्या करूंगा मुझे पता नहीं और न ही कोई इच्छा है। क्योंकि जिस स्तर की पढ़ाई आज के जमाने में हो रही है मेरे माता-पिता के पास पैसे
नहीं हैं।
-राहुल कुमार
किसी भी जाति या समाज के उत्थान के लिये आरक्षण देना जरूरी होता है। लेकिन, कम जनसंख्या के कारण हम उपेक्षा का शिकार होते आ रहे हैं।
-पप्पु कसेरा
जो युवक या छात्र अपने पारंपरिक रोजगार को छोड़कर नौकरी करना चाहते हैं, वे आभाव के कारण बेहतर शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। सांसद ललन सिंह ने भी लोसभा में यह सवाल उठाया है।
-पंकज कसेरा
मेरे घर में अभी भी यह रोजगार होता है, लेकिन दिल से इच्छा होता है कि कोई दूसरा काम करें या फिर कोई चमत्कार हो और हमारा पारंपरिक रोजगार ही चल पड़े।
-नूतन देवी
अभी भी लालसा है कि हमारे पारंपरिक रोजगार को सरकार एक मौका अवश्य देगी। इसी भरोसे से हम भी समाज के अन्य लोगों के साथ इसके विकास के लिए सहयोग करने का प्रयास करते हैं।
-मंजू देवी
मैंने अपने समाज को एकजुट कर उनकी आवाज जनप्रतिनिधियों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। लेकिन, आश्वासन के अलावे अभी तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
-गोरेलाल कसेरा
मैं पिताजी के साथ बर्तन की दुकान चलाता हूं। लेकिन, शादी-विवाह जैसे मौसम को छोड़कर काफी मंदा रहता है। इसलिये कांसा-पीतल के जगह पर स्टील और एल्युमिनियम का बर्त्तन भी बेचना पड़ता है।
-धर्मेन्द्र कसेरा
मैंने सुना था कि सरकार पूंजी के लिये बिना गारंटर और ब्याज के लोन दे रही है। लेकिन, कई माह से बैंक का चक्कर काटने के बाद भी मुझे लोन नहीं मिला। इसलिये जेनरल स्टोर में रूपया लगाया है।
-रेणु देवी
पहले मैं भी बर्त्तन बनाता था। अब दुकान में बर्तन खरिदकर बेचना पड़ रहा है। लेकिन, दुकानदारी नहीं रहने के कारण पूंजी भी बचानी मुश्किल हो गई है।
-प्रदिप कसेरा
हमारे बने बर्तन सासाराम से बनारस और कलकत्ता तक जाते थे। कई खरिददार दूर-दूर से हमारे गढ़े बर्तनों को खरीदते थे। लेकिन, अब कांसा महंगा होने के कारण वह बनना बंद हो गया।
-सरजू कसेरा
मैं अभी भी बर्तन बनाने का काम करता हूं। लेकिन, अब इससे मेरा गुजारा नहीं होता। लेकिन, पेट की आग दूसरा कार्य करने को मजबूर कर देती है। समाज को एकजुट होने की आवश्यकता है।
-टुनटुन कसेरा
जब कभी भी हमारे रोजगार को बढ़ावा देने की बात होती थी तो मैं सक्रिय रहता था। जब तक हमारे समाज को आरक्षण और सरकारी सहायता नहीं मिलती तब तक उत्थान संभव नहीं है।
-निरंजन कसेरा
मेरे पति, ससुर और उनके पिताजी सभी बर्तनों को तराशते रह गये। बर्तन बनाने का सारा औजार रख दिया है और हाथ से चलने वाला खरात अभी भी वैसे हीं लगा हुआ है। क्या करें समझ नहीं आता।
-कंचन देवी
पुराने बर्तनों को चमकाने का हुनर जानते हैं। लेकिन, हम इस पारंपरिक रोजगार को चमका नहीं पा रहे। घर में कुछ ही लोग अभी भी इस धंधे को बचाने में जुटे हैं।
-दिलीप कसेरा
-प्रस्तुति : सुधीर कुमार/अमित कुमार
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