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कलाकारों को मंच व संसाधनों की तलाश

दरभंगा में नृत्य-संगीत की समृद्ध संस्कृति है, लेकिन स्थानीय कलाकारों को प्रदर्शन के अवसर नहीं मिल रहे हैं। सरकारी प्रशिक्षण संस्थानों की कमी और आर्थिक तंगी के कारण कलाकारों की प्रतिभा दब रही है।...

Newswrap हिन्दुस्तान, दरभंगाWed, 19 Feb 2025 01:05 PM
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कलाकारों को मंच व संसाधनों की तलाश

 

नृत्य-संगीत दरभंगा की संस्कृति में समाहित रही है। आज भी दरभंगा घराने का नाम देशभर में कला के कद्रदान सम्मान से लेते हैं। फिर भी स्थानीय नृत्य-संगीत कलाकारों में मायूसी है। उनका कहना है कि यहां कला को बढ़ावा देने के लिए स्थायी प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। कभी-कभार कला व संस्कृति विभाग की ओर से प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन होता है, जिसमें भाग लेने से अधिकतर कलाकार वंचित रह जाते हैं। निजी संस्थानों में नृत्य-संगीत, अभिनय आदि सीखने वाले कलाकार भी मंचन से वंचित रहते हैं। सिर्फ संस्थान में सीखने का मौका मिलता है। कलाकार बताते हैं कि जिले में लहेरियासराय ऑडिटोरियम के अलावा दूसरा रंगमंच भी नहीं है। यहां भी अधिकतर सरकारी कार्यक्रम होते हैं। महोत्सव आदि कार्यक्रम होते हैं तो बाहर से कलाकारों को बुलाया जाता है। स्थानीय चंद कलाकार ही मौका पाते हैं। रंगमंच पर प्रदर्शन का अवसर नहीं मिलने से कलाकारों की प्रतिभा कुम्हला रही है।

ओडिशी नृत्य गुरु जयप्रकाश पाठक बताते हैं कि दरभंगा के कलाकार पटना, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई आदि जगहों पर प्रतिभा का परचम लहरा रहे हैं। इसके बावजूद जिले में माहौल नहीं बन रहा है। सिर्फ सरकारी महोत्सवों के सहारे कलाकार क्या करेंगे। उन्होंने बताया कि अधिकतर कलाकारों की प्रतिभा बीच में ही दम तोड़ देती है। रोजी-रोटी और परिवार की जिम्मेवारी में फंसने से कलाकारों का सफर बीच रास्ते में ही समाप्त हो जाता है। उन्होंने बताया कि कला साधना है। छह-सात वर्ष तपस्या करने के बाद कलाकार का दर्जा मिलता है। ऐसे में संसाधन का अभाव प्रतिभा के दबने की वजह बन रहा है। उन्होंने बताया कि हालांकि कला को बढ़ावा देने का सरकारी अभियान तेज हुआ है। पहली बार कला व संस्कृति विभाग ने मकर संक्रांति, वसंतोत्सव आदि का आयोजन किया है। इसमें कलाकारों को भाग लेने का अवसर मिला। ऐसी गतिविधियां बढ़नी चाहिए। उन्होंने बताया कि कलाकारों को मुक्ताकाश (ओपेन थियेटर) की कमी खल रही है। इसे बनाने की सरकारी पहल हो तो माहौल बदलेगा। कला और कलाकार दोनों को बढ़ावा मिलेगा।

टूटी बंदिशें, बढ़ रहे कलाकार, पर असुविधाएं बरकरार

गांव-समाज में नाचने-गाने के लोग कद्रदान रहे हैं। इसके बावजूद कलाकार बनने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। आधुनिक दौर में यह समाप्त हो चुका है। नृत्य-संगीत में करियर बनाने पर लगी सामाजिक बंदिशें टूट चुकी हैं। अभिभावक स्वयं बच्चों को नृत्य-कला, अभिनय संस्थान पहुंचाने जा रहे हैं। नृत्य-संगीत सीखने के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। कला संस्कृति विभाग के राज्य परामर्शी व सामाजिक कार्यकर्ता उज्ज्वल कुमार बताते हैं कि नृत्य-संगीत का कल्चर तेजी से बढ़ा है। इसे बिहार सरकार भी बढ़ावा दे रही है। स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम, धार्मिक आयोजनों आदि में कलाकार प्रदर्शन कर आमदनी भी प्राप्त कर रहे हैं। इसके बावजूद व्यापक पहल की दरकार है। जिले के कलाकार बिखरे हुए हैं। इनके उठने-बैठने, रिहर्सल करने आदि के लिए जगह नहीं है। इससे कलाकारों को दिक्कत हो रही है। कलाकार मुक्ताकाश बनाने की डिमांड कर रहे हैं, जहां आधुनिक सुविधाओं से युक्त रिहर्सल स्टेज, बाहरी कलाकारों के रुकने की जगह आदि मौजूद हो। इससे शहर में कला का माहौल बनेगा। उन्होंने बताया, नृत्य-संगीत सीखकर करियर बनाने के इच्छुक युवाओं को भी दिक्कत हो रही है। चंद निजी संस्थान हैं, जिनके बूते युवा सफलता की इबारत लिख रहे हैं। सरकारी प्रोत्साहन मिलेगा तो यह ग्राफ और बढ़ सकता है।

मिलती पीएचडी डिग्री, पर बच्चों के लिए नृत्य-संगीत संस्थान नहीं

जिले में नृत्य-संगीत कला की पढ़ाई लनामिवि में होती है। यहां से विद्यार्थी पीजी एवं पीएचडी की डिग्री लेते हैं। इसके बावजूद निचले स्तर पर सरकारी संस्थान नहीं है। इस स्थिति के कारण लनामिवि के पीजी नाट्य संगीत विभाग में विद्यार्थियों का अभाव है। सूत्रों की मानें तो संसाधनों के अभाव में यहां कभी-कभार ही रंगमंचीय कार्यक्रम होते हैं। इसके कारण छात्र चुपचाप डिग्री लेकर नौकरी की तलाश में जुट जाते हैं। कलाकार रूपेश कुमार इसका कारण कुव्यवस्था मानते हैं। कहते हैं कि बच्चों को सिखाने के सरकारी स्तर पर प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के संस्थान की आवश्यकता है। इससे गरीब तबके के विद्यार्थियों को मायूस होना पड़ता है। बच्चों को नृत्य-संगीत सिखाने के लिए सरकारी स्तर पर सिर्फ एक किलकारी संगठन है, जहां सीमित तादाद में बच्चे नृत्य-संगीत सीखते हैं। इस वजह से दर्जनों नृत्य-संगीत के निजी संस्थान खुल चुके हैं। वहां अमीर बच्चे ओडिशी, कथक, मिथिला लोक नृत्य, संगीत आदि का प्रशिक्षण लेते हैं।

- प्रस्तुति : राजकुमार गणेशन

गांव-गांव में मौजूद था रंगमंच व नाट्य मंडली

दरभंगा राज के दौर में नृत्य-संगीत को खूब बढ़ावा मिला। इसकी गवाही आज संस्कृत विश्वविद्यालय में मौजूद दरबार हॉल देता है। वसंती पंचमी, होली, दुर्गापूजा, छठ, दीपावली आदि अवसरों पर गांवों में नगाड़े का स्वर गूंजने लगता था। रंगमंच सज जाता था और नाट्य-मंचन की धूम मच जाती थी। श्रोता के तौर पर बच्चे, बूढ़े, महिलाओं व युवाओं की भीड़ लगती थी। समाजसेवी विनोद मिश्र बताते हैं कि सब खत्म हो चुका है। अब ना रंगमंच है और ना ही कलाकार बचे हैं। नई पीढ़ी के बच्चे शहरों में पढ़ते हैं। जो गांव में हैं भी उन्हें बढ़ाने वाले कलाकार परदेस में जीवन यापन करते हैं। उन्होंने बताया कि जिले के सभी गांवों में नाट्य समिति थी, पर पक्का रंगमंच गिनती के गांव में रहे हैं। उन्होंने बताया कि नए कलाकारों को तैयार करने की परंपरा गांव में समाप्त हो गई है। एकाध गांव बचे हैं जहां के जिद्दी कलाकार आयोजन कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि शहर के मिर्जापुर, कबिलपुर, केवटी के पिंडारुछ, मनीगाछी के उजान, पुतई, माऊंबेहट,बहादुरपुर के खैरा, सिंहवाड़ा आदि गांवों में सक्रिय नाट्य मंडली रही है। इनमें से चंद बचे हैं जो सांस ले रहे हैं। उन्होंने बताया कि नाट्य समितियों के पास पर्दा, कॉस्ट्यूम, साजो-समान सब रहा है जो मंचन गतिविधियां ठप होने से बर्बाद हो चुके हैं।

नृत्य-संगीत में भी शानदार कॅरियर : उज्ज्वल

जिले में नृत्य-संगीत सीखने की ललक युवाओं में बढ़ी है। इससे रोजगार सृजन बढ़ा है। नृत्य-संगीत सीखने वाले कलाकार सरकारी कोटे का लाभ उठाकर नौकरी प्राप्त कर रहे हैं। कला संस्कृति व युवा विभाग के राज्य परामर्शी सदस्य उज्जवल कुमार बताते हैं कि शिक्षक, रेलकर्मी आदि के रूप में नृत्य-संगीत कलाकार कोटे से दर्जनों लोगों को नौकरी मिल चुकी है। कलाकार नौकरी के साथ कला भी प्रदर्शित कर रहे हैं। इसके बावजूद नृत्य-संगीत के क्षेत्र में करियर निर्माण चुनौती बनी है। दरभंगा शहर में इसे पूर्णरूपेण विकसित करने के लिए सरकारी संस्थान की आवश्यकता है। इसके अभाव में नृत्य-संगीत सीखने के इच्छुक गरीब बच्चों के अभिभावकों की परेशानी बढ़ी हुई है। निजी संस्थानों पर ऊंची दर पर सिखाने की व्यवस्था है।

-बोले जिम्मेदार-

जिले में मौजूद विभिन्न विधाओं के कलाकारों की सूची तैयार करने के लिए प्रखंड विकास पदाधिकारियों को पत्र भेजा गया है। साथ ही महोत्सवों के आयोजन से कला को बढ़ावा दिया जा रहा है। मंचन के लिए दरभंगा ऑडिटोरियम मौजूद है। असुविधा होने पर वे जिला कला व सांस्कृतिक कार्यालय में संपर्क कर सकते हैं। -चंदन कुमार, जिला कला व सांस्कृतिक पदाधिकारी

शिकायत

1. अधिकतर कलाकार आर्थिक तंगी झेल रहे हैं जिससे उनकी कला प्रभावित हो रही है। इस पर प्रशासन को ध्यान देने की आवश्यकता है।

2. कलाकार प्रायोजकों की कमी से जूझते हैं। सरकारी स्तर पर होने वाले आयोजनों में स्थानीय कलाकारों को कम मौका मिलता है।

3. सरकारी विद्यालयों एव अधिकतर निजी संस्थानों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजनों में बच्चों को वीडियो दिखाकर डांस सिखाया जाता है। इससे वे कला की बारीकी नहीं सीख पाते हैं।

4. ग्रामीण कलाकार आर्थिक बदहाली से पलायन कर चुके हैं। गांव में कला की अखल जगाने वाली नाट्य मंडली समाप्त हो रही है।

सुझाव

1. कलाकारों को एक निश्चित समयावधि तक बेरोजगारी भत्ता मिले। साथ ही नाट्य, संगीत, नृत्य आदि का वृहत आयोजन किया जाए।

2. ग्रामीण स्तर के कलाकारों को जिला स्तर पर प्रदर्शन का अवसर मिले। इसकी व्यवस्था होने ग्रामीण क्षेत्रों में मृतप्राय नाट्य मंडलियों को संजीवनी मिल जाएगी।

3. प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर नृत्य-संगीत प्रशिक्षण खोलने की जरूरत है जहां योग्य गुरु की तैनाती हो। इससे गरीब बच्चों को मौका मिलेगा।

4. डिजिटल प्लेटफॉर्मों से युवाओं को अवसर उपलब्ध है। इसलिए शिक्षा से नृत्य-संगीत को जोड़ पढ़ाई करने से रोजगार सृजन के साथ कला को भी बढ़ावा दिया जा सकता है।

 

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