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चमत्कार नहीं, प्रेम ही सच्चे संत की पहचान : स्वामी युगल शरण

चमत्कार नहीं, प्रेम ही सच्चे संत की पहचान : स्वामी युगल शरणचमत्कार नहीं, प्रेम ही सच्चे संत की पहचान : स्वामी युगल शरणचमत्कार नहीं, प्रेम ही सच्चे संत की पहचान : स्वामी युगल शरणचमत्कार नहीं, प्रेम ही...

Newswrap हिन्दुस्तान, बिहारशरीफMon, 17 Feb 2025 08:41 PM
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चमत्कार नहीं, प्रेम ही सच्चे संत की पहचान : स्वामी युगल शरण

चमत्कार नहीं, प्रेम ही सच्चे संत की पहचान : स्वामी युगल शरण सच्चे संत दिखावे से दूर, ईश्वर प्रेम में रहते हैं लीन वास्तविक संत सांसारिक सुख नहीं, देते हैं आत्मिक शांति श्रद्धा से ही महापुरुष की पहचान संभव संत की वाणी हृदय को छूती है, संशय मिटाती है - स्वामी युगल शरण फोटो : युगल 01 : बिहारशरीफ के श्रम कल्याण केंद्र में सोमवार को आध्यात्मिक प्रवचन देते हुए डॉ. स्वामी युगल शरण। युगल 02 : श्रम कल्याण केंद्र के मैदान में डॉ. स्वामी युगल शरण के प्रवचन में उमड़ी श्रद्धालुओं की भारी भीड़। बिहारशरीफ, हमारे संवाददाता। शहर के श्रम कल्याण केंद्र में ब्रज गोपिका सेवा मिशन द्वारा आयोजित प्रवचन के नौवें दिन सोमवार को स्वामी युगल शरण ने लोगों को महापुरुष की पहचान और उनकी लीलाओं का गूढ़ रहस्य समझाया। उन्होंने कहा कि भगवान और महापुरुष जो भी असंभव या विपरीत कार्य करते हैं, वे योगमाया की शक्ति से होते हैं। उनकी लीलाएँ केवल जीवों को शिक्षा और सुख देने के लिए होती हैं, इसलिए वे माया के बंधन में नहीं आते। उन्होंने बताया कि वास्तविक महापुरुष को पहचानना आसान नहीं है, लेकिन कुछ विशेष लक्षणों से उनकी पहचान की जा सकती है। उन्होंने स्पष्ट किया कि सच्चे संत सांसारिक वस्तुएं नहीं देते, क्योंकि वे चाहते हैं कि जीव अहंकार से बचें और परमात्मा से जुड़ें। उन्होंने रामायण का उल्लेख करते हुए कहा कि नहीं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाई जाहीं मद नाहीं। अर्थात संसार में कोई ऐसा नहीं है जिसे सत्ता या संपत्ति का अहंकार न हो। इसलिए वास्तविक संत सांसारिक संपत्ति से दूर रहते हैं। उन्होंने आगे कहा कि सच्चे संत चमत्कार नहीं दिखाते। भले ही भगवान उन्हें यह शक्ति प्रदान करें, लेकिन वे इसका उपयोग नहीं करते। जो संत चमत्कारों का प्रदर्शन करते हैं, वे वास्तविक नहीं होते, इसलिए चमत्कारों को दूर से ही प्रणाम करना चाहिए। इसी तरह, सच्चे संत झूठे आशीर्वाद या श्राप भी नहीं देते। उन्होंने समझाया कि जब तक किसी व्यक्ति का अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, तब तक महापुरुष उसे दीक्षा नहीं देते, क्योंकि दीक्षा का अर्थ केवल मंत्र देना नहीं, बल्कि भगवत्प्राप्ति कराना होता है। उन्होंने कहा कि एक सच्चा गुरु पहले अपने शिष्य को साधना और आत्मशुद्धि की प्रक्रिया से गुजरने देता है। जब अंतःकरण पूरी तरह से निर्मल हो जाता है, तभी वह दिव्य आनंद प्रदान करता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सच्चे संत किसी का अहित नहीं करते, बल्कि उनके द्वारा दिया गया श्राप भी जीव के कल्याण के लिए होता है। उन्होंने श्रद्धालुओं को सावधान करते हुए कहा कि संत की पहचान उसकी बाहरी वेशभूषा से नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसके अंतःकरण की शुद्धता और प्रेम को देखना चाहिए। संत चाहे गृहस्थ हो या सन्यासी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि भारत के आध्यात्मिक इतिहास में अधिकांश संत गृहस्थ जीवन जीते थे। उन्होंने बताया कि सच्चे संत की वाणी दिव्य होती है, जो हृदय को छूती है और सभी संशयों को मिटा देती है। उनके सत्संग से ईश्वर के प्रति प्रेम बढ़ता है और संसार के प्रति मोह कम होता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे शुद्ध लोहे की सुई चुंबक की ओर जल्दी खिंच जाती है, वैसे ही शुद्ध हृदय वाले व्यक्ति पर संतों की वाणी और सत्संग का शीघ्र प्रभाव पड़ता है। महापुरुषों के सबसे अनमोल गुण के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि उनके पास दिव्यानंद होता है, जिसे वे प्रकट नहीं करते, लेकिन उनके भजन, कीर्तन और भगवान की याद में उनके भीतर उमड़ता प्रेम इसे जाहिर कर देता है। जब कोई सच्चे संत के दर्शन कर लेता है, तो वह उनसे कभी अलग नहीं हो सकता। महापुरुषों को केवल श्रद्धा से पहचाना जा सकता है, अन्यथा तुलसीदास जी के शब्दों में मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंचि सम। मौके पर रविचंद कुमार, रश्मि रानी, दिलीप कुमार, प्रमोद कुमार, सुनील कुमार, मोहन दास, गोपाल गुप्ता, राज कुमार, रोहित कुमार, कुमारी अर्पिता, कुमारी विशाखा व अन्य मौजूद थे।

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