गर्मी की दस्तक से सूखने लगे जलस्रोत, बढ़ा जल संकट
बोले बांकाबोले बांका प्रस्तुति- कविन्द्र कुमार सिंह नदियां सिकुड़ीं, चापाकल-कुएं हुए बेदम, जल संरक्षण योजनाएं बनी दिखावा जल संरक्षण

कटोरिया (बांका) निज प्रतिनिधि। जब हमारी ज़िंदगी की रफ्तार तेज़ी से बढ़ रही हो, जब हम अपने आधुनिक युग में रमे हों, तब कहीं न कहीं प्रकृति हमें याद दिलाती है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वह सब अस्थिर और क्षणिक है। जल ही जीवन है, यह एक ऐसा तथ्य है जिसे हम रोज़ भूलते जा रहे हैं। परंतु जब गर्मी की तपिश बढ़ने लगती है और जलस्रोतों की स्थिति गंभीर हो जाती है, तब हमें एक सख्त चेतावनी मिलती है। शायद अब भी वक्त है, शायद अब भी हम कुछ कर सकते हैं। जेठ का महीना अभी दूर है, लेकिन वैशाख के शुरुआती दिनों में ही गर्मी ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। जैसे-जैसे गर्मी का असर बढ़ता है, जलसंकट भी गहरा होने लगता है। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में स्थिति अधिक गंभीर हो गई है। नदियां, तालाब, कुएं, चापाकल सब सूखने लगे हैं। गांवों में लगे चापाकल अब या तो बंद हो चुके हैं या बेहद कम पानी दे रहे हैं। पुराने कुएं, जो एक समय पानी का मजबूत स्रोत थे, अब वीरान और सूखे पड़े हैं। कई जगहों पर महिलाएं और बच्चे 2-3 किलोमीटर दूर तक सिर पर बाल्टी लेकर पानी लाने को मजबूर हैं। इस जल संकट के कारण न केवल इंसान, बल्कि पशु-पक्षी और मवेशी भी संकट में हैं। गर्मी की शुरुआत में ही जलस्तर गिर चुका है, तालाबों में दरारें पड़ने लगी हैं। किसानों के लिए खेतों में पानी की किल्लत हो गई है। धान की फसल कटने के बाद अधिकांश खेत बेजान पड़े हैं। साग-सब्जियां उगाने में भी मुश्किलें सामने आ रही हैं।
दरभाषण, चांदन, बडुआ जैसे नदियों का अस्तित्व खतरे में
कभी जिन रास्तों पर नदियां कल-कल बहा करती थीं, अब वहां सिर्फ सूखी दरारें हैं और तपती बालू की चुप्पी। दरभाषण, बड़ुआ, चांदन जैसी नदियां जो खासकर कटोरिया एवं चांदन की जीवनदायिनी नदी मानी जाती थी, अब मूक गवाही बनकर खड़ी हैं, गवाही उस लापरवाही की, जिसने जलस्रोतों को छीन लिया है। एक समय था जब इन नदियों के भरोसे से आसपास के इलाके की जल जरूरतें पूरी होती थीं। खेत सींचे जाते थे, जानवर पानी पीते थे। आज वहीं नदी अपने सूखे पेट में सिर्फ बालू समेटे खामोश बह रही है। न उसमें प्रवाह है, न कोई जीवन। यही हाल क्षेत्र की अन्य नदियों का भी है। इन नदियों का अस्तित्व धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।
सरकारी योजनाएं बनी भ्रष्टाचार का जरिया, नहीं दिख रहा असर
सरकार की ओर से जल संरक्षण के लिए ‘जल जीवन हरियाली, ‘मनरेगा और ‘जलछाजन जैसी योजनाएं लागू की गई हैं, जिनके तहत क्षेत्र में कई तालाबों का निर्माण या जीर्णोद्धार कराया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि तालाब तो हैं, पर पानी नहीं है, क्योंकि निर्माण कार्य में भारी अनियमितता बरती जा रही है। तालाब के नाम पर सिर्फ गड्ढे बने। स्थानीय लोगों के अनुसार, कई तालाबों का निर्माण पहले एक योजना के तहत हुआ, फिर उसी तालाब को दूसरी योजना में फिर से दिखाकर नया बजट पास कर लिया गया। इस तरह एक ही तालाब पर दो-दो योजनाएं चलीं, लेकिन जमीन पर न तो पानी आया और न ही किसान की कोई समस्या दूर हो पाई। केवल कागजों में तालाब लबालब हैं, धरातल पर वे सूखी खाइयों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। जिससे किसान त्रस्त हैं, मवेशी प्यासे हैं और प्रशासनिक अमला निष्क्रिय बना हुआ है।
पानी की उपलब्धता को भी समझना जरूरी
इन सब से अधिक जरूरी है कि पानी की उपलब्धता को समाज समझे। भू-जल संरक्षण की खातिर अभियान चलाया जाना अतिआवश्यक है, ताकि भू-जल का समुचित नियमन हो सके। छत से बरसात के पानी को व्यर्थ नहीं बहने देना चाहिए। वर्षा काल में छतों की सफाई कर तथा छत के ढलान वाली ओर पाइप लगाकर पानी टंकी/कुण्ड में संग्रह करनी चाहिए। छत पक्की न हो तो खेत या खुले मैदान में टंकी बनानी चाहिए। इसके अलावा सामुदायिक इमारतों जैसे प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालयों की छत आदि का बरसाती पानी सामुदायिक टंकी को भरने के उपयोग में लें। जहां तक सम्भव हो नहाने-धोने के पानी को सब्जी की क्यारियों या पेड़-पौधों के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। वरना कल खर्च में इससे भी ज्यादा बढो़तरी होगी, जिससे स्थिति इतनी भयावह होगी कि उसका मुकाबला कर पाना असंभव होगा।
कोट -
गर्मी की मार से जलस्रोत सूख रहे हैं, यह हम सभी के लिए चेतावनी है। जल संकट से उभरने के लिए सरकार विभिन्न योजनाएं चला रही है। सरकार इस दिशा में हर संभव कदम उठाने को प्रतिबद्ध है। लेकिन यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हम सभी की साझा जिम्मेदारी है।
मनोज यादव, विधायक, बेलहर विधानसभा
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