आधुनिकता की दौड़ में गांव से गुम हो रहे फगुआ गीत
अब नहीं सुनायी पड़ती गांव की चौपाल पर फगुआ गीत
अब नहीं सुनायी पड़ती गांव की चौपाल पर फगुआ गीत
बांका। कार्यालय संवाददाता
आधुनिकता व फुहड़ होली गीतों के आने से अब पारंपरिक फगुआ गीत लगभग गुम होते नजर आ रहे हैं। गांव की चौपाल पर होली के एक माह पूर्व से गाए जाने वाले फगुआ गीत अब विलुप्ती के कगार पर हैं। हालांकि अभी भी कई गांव इन होली की चौपालों से गुंजायमान होते हैं। पारंपरिक होली गीतों के विलुप्त होने की वजह से लोगों में अब होली का उमंग भी धीरे-धीरे कम होता दिख रहा है।लोगों का कहना है कि कुछ वर्षो पूर्व की तस्वीर अगर देखी जाए तो वसंत पंचमी के दिन से ही गांव-गांव में होली की चौपाल सजने लगती थी। चौपाल पर जुटे ग्रामीणों द्वारा रंग विरंगे पारंपरिक होली गीतों की बछौर लगा दी जाती थी। इस माहौल का आनंद लेने प्रदेश में रहने वाले ग्रामीण भी जुट जाते थे। एक माह तक लगभग होली चौपाल गांव-गांव में रंगीन होती रहती थी। यह चौपाल ग्रामीणों की एकजुटता व प्रेम की अटूटता को दर्शाता था। एक दूसरे से मिलकर गांव के लोग होली के अवसर पर काफी खुश नजर आते थे। होली के एक माह पूर्व से ही शाम होते ही गांव से ढ़ोल मंजीरा के साथ-साथ पारंपरिक होली गीतों की आवाज गुंजायमान होते रहते थे। इसके बाद एक एक ग्रामीण के दरबाजे पर यह चौपाल सजती थी तथा लोग होली गीतों से ओतप्रोत होते रहते थे। धीरे-धीर आधुनिकता व फुहड़ गीतों का मायाजाल फैलता गया तथा इसमें पारंपरिक होली गीतों के साथ ही ग्रामीण चौपाल भी सिमटती चली गयी। आज अगर देखा जाए तो काफी कम ही ऐसे गांव होंगे जहां यह होली चौपाल का आयोजन किया जाता है।
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