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बोले औरंगाबाद : ईंट-भट्ठा श्रमिकों की स्वास्थ्य जांच के लिए पंचायत स्तर पर लगे शिविर

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बेहद कठिन है। ये गरीब परिवार से तालुकात रखते हैं और दिन-रात मेहनत करते हैं, लेकिन उन्हें मजदूरी भी कम मिलती है। इनकी शिक्षा का स्तर भी बहुत निम्न है और...

Newswrap हिन्दुस्तान, औरंगाबादFri, 7 March 2025 01:47 AM
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बोले औरंगाबाद : ईंट-भट्ठा श्रमिकों की स्वास्थ्य जांच के लिए पंचायत स्तर पर लगे शिविर

समाज का एक वर्ग जो दूसरों का आशियाना बनाने के लिए भट्ठों पर कड़ी मेहनत कर ईट का निर्माण करता है, पर उसका शायद खुद का आशियाना तक नहीं होता है। समाज के इस वर्ग की समस्याएं बेहद जटिल है। गरीबी उनकी सबसे बड़ी समस्या है। गरीबों की मार झेल रहे यह मजदूर के रूप में भट्ठों पर काम करते हैं। दिन-रात कड़ी मेहनत कर खुद व परिवार के सदस्यों के लिए नमक रोटी की जुगाड़ करते हैं। मजदूरी भी ने अल्प मिलती है जिससे उनके परिवार का सही तरह से गुजर भी नहीं हो पाता है। इसके बावजूद यह काम करना उनकी मजबूरी होती है। यह पढ़े-लिखे भी नहीं होते हैं और बेहद गरीब परिवार से तालुकात रखते हैं। बस कमाना-खाना और परिवार का भरण-पोषण करना ही इनकी जिंदगी है। सुबह से लेकर शाम तक मिट्टी के साथ जूझ रहे होते हैं। अधिक से अधिक ईंट बनाने की होड़ में लगे रहते हैं। उनकी मजदूरी की प्रकृति भी कार्यनुसार है। एक हजार ईंट बनने पर इन्हें छह सौ मजदूरी मिलती है।

एक पथेरा यदि पूरे दिन कड़ी मेहनत करता है तो 6 से 7 सौ तक कच्ची ईंट का निर्माण कर पाता है। इस तरह उनकी एक दिन की मजदूरी तकरीबन 350 रुपए के आसपास होती है। बालबच्चों के साथ ये इस काम में जुटे होते हैं। इससे आगे की ये सोचते ही नहीं है। पीने न बच्चों की पढ़ाई की चिंता है और न ही भविष्य में आगे कुछ और करने की। बस ईट पाथना ही इनकी जिंदगी है। उनकी पूरी जिंदगी मिट्टी से सनी दिखती है। इनके पास समस्याओं का अंबार है। दूसरे जिले या प्रदेशों का होने के चलते यहां इन्हें राजकीय कल्याण योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता है। हर तरह के लाभ से ये वंचित है। उनके बाल-बच्चे भी भट्ठे की राख में पालकर बड़े हो जाते हैं और फिर इसी काम में वे भी लग जाते हैं। इनकी पढ़ाई भी नहीं हो पाती है। हालांकि पढ़ाई के लिए राज्य सरकार की ओर से सुविधा दी जा रही है। यह कहा जा रहा है कि ईंट भट्ठे पर काम करने वाले मजदूरों के नन्हे बच्चे समीप के आंगनबाड़ी केंद्र या स्कूल में नामांकित होंगे और उन्हें यहां मिलने वाली हर सुविधा उपलब्ध होगी। इनका नामांकन कभी भी लिया जा सकता है। कागज के पन्नों में तो यह दिखाई देता है पर व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है। इसका व्यावहारिक पहलू यह है कि पथेरे के बच्चे शायद ही पढ़ रहे हो। वे थोड़े बड़े होते ही मां-बाप के काम में हाथ बटाने लगते हैं। इनका आशियाना ईंट भट्ठे के किनारे कच्ची ईंट की बनी झोपड़ियों में होता है। उन्हीं झोपड़ियों में पूरे परिवार के साथ उनकी जिंदगी कटती है।

विपरीत परिस्थितियों में भी यह झोपड़ियों में ही रहते हैं। जेठ की दुपहरी हो या माघ-पूस की कनकती ठंड, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। भट्ठा मलिक इन्हें बिजली, पानी व जलावन की सुविधा उपलब्ध कराते हैं। सप्ताह में एक दिन बाजार जाकर ये आवश्यक सामग्रियां खरीदते हैं। झोपड़ियों में ही इनका खाना बनता है और दिन-रात कड़ी मेहनत करने के बाद खाकर झोपड़ी में ही परिवार के सदस्यों के साथ सो जाते हैं। इनकी जिंदगी में सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है। समस्याएं बताते-बताते इनकी आंखें भी नाम हो जाती हैं, जो उनकी बेबसी को बयां करती है। पूछे जाने पर ये कहते हैं कि हमलोग कर भी क्या सकते हैं। ईंट बनाकर परिवार का गुजारा करना ही उनकी जिंदगी है। उधर, श्रम प्रवर्तन पदाधिकारी रणविजय कहते हैं कि ईंट भट्ठे पर काम करने वाले स्थानीय मजदूरों के लिए सरकार कई योजनाएं चल रही है पर बाहरी मजदूरों के लिए कोई योजना नहीं है। स्थानीय मजदूरों की बेटी की शादी के 3 साल बाद उन्हें सहायता राशि दी जाती है। दुर्घटना में मृत्यु होने पर 4 लाख तथा स्वाभाविक मृत्यु होने पर 2 लख रुपए की राशि दी जाती है। इनके पढ़ने वाले बच्चे जब मैट्रिक या इंटर की परीक्षा पास करते हैं तब उन्हें सहायता राशि दी जाती है। शिक्षा विभाग के कार्यक्रम पदाधिकारी बताते हैं कि ईंट भट्ठे पर काम करने वाले मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई के लिए सरकार के द्वारा व्यवस्था की गई है। उनके बच्चे भट्ठे के समीप के आंगनबाड़ी केंद्र या स्कूल में नामांकित हो सकते हैं। वहां उन्हें मिलने वाली हर सुविधा मिलेगी। इसके लिए प्रयास भी किया जा रहा है।

बाहरी होने के चलते नहीं मिलता योजनाओं का लाभ

ईंट भट्ठे पर काम करने वाले अधिकांश पथेरे दूसरे जिले या प्रदेशों के हैं। गरीबों की मार झेलते हुए ये काम करने यहां तक पहुंचाते हैं। बाहरी मजदूर होने के नाते स्थानीय क्षेत्र में किसी भी कल्याण योजना का लाभ ही नहीं मिल पाता है। घर से बाहर होने के चलते वहां मिलने वाली सुविधाओं का लाभ भी ये नहीं ले पाते हैं। इन्हें यह भी पता नहीं है कि उनके लिए सरकार कौन-कौन सी योजनाएं चल रही है। किन योजनाओं का लाभ उन्हें मिल सकता है और किन योजनाओं का लाभ और नहीं मिल सकता है। 60 वर्ष से अधिक उम्र के पथेरे भी ईंट बनाकर अपना और परिवार का गुजारा कर रहे हैं पर उन्हें वृद्धावस्था पेंशन का लाभ नहीं मिल रहा है। उनके सामने बड़ी समस्या बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की है। अधिकांश पथेरों के बच्चे अब भी पढ़ाई-लिखाई से दूर हैं। ऐसे में इनके विकास की कल्पना कैसे की जा सकती है। गरीबों की मार ये इस कदर झेल रहे होते हैं कि ईंट बनाने से अधिक की सोच भी नहीं पाते हैं। समाज के इस वर्ग को विशेष राजकीय कल्याण की जरूरत है।

इनके लिए अलग से योजनाएं चलाई जानी चाहिए, ताकि समाज का यह दबा-कुचला वर्ग भी मुख्य धारा में जुड़कर आगे बढ़ सके। यह वर्ग इतना कमजोर है कि अपना सवाल भी दूसरों के सामने नहीं रख पाता है। इधर खुद से उनकी सुधि लेने वाला भी कोई नहीं है।

सुझााव

1. पथेरों को विशेष राजकीय सहायता मिलनी चाहिए

2. उनकी समस्याओं के प्रति राजकीय संवेदनशीलता जरूरी है

3. उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए भट्ठे पर ही व्यवस्था होनी चाहिए

4. ईंट भट्ठे पर इन्हें अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध होनी चाहिए

5. इन्हें गरीबों से उबारने का प्रयास सरकार को करना चाहिए

शिकायतें

1. पथेरों की सामाजिक आर्थिक स्थिति बेहद निम्न है

2. गरीबों के चलते आगे कुछ कर पाने में सक्षम नहीं होते

3. अधिकांश पथेरे पढ़े लिखे नहीं है, उनके बच्चे भी नहीं पढ़ते

4. बाहरी होने के चलते योजनाओं का लाभ नहीं मिलता

5. इनके लिए कोई विशेष योजना चलाने की जरूरत है।

सरकार की ओर से उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलती। वे जो कमाते हैं उसी से परिवार का गुजर-बसर करते हैं। उनके सामने कई समस्याएं होती है।

-धनपतिया कुंवर

विपरीत परिस्थितियों में भी वे काम करने को विवश होते हैं। यदि वे कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या, यह उनकी सबसे बड़ी समस्या है। हर परिस्थिति में वे काम करते हैं।

-रंजय बिंद

ईंट पाथ के वे दूसरों के घरों का निर्माण करते हैं पर अपने घर के लिए उनके पास ईंट नहीं है। किसी तरह उनके परिवार के लोग जीवन-यापन करते हैं।

-नीतीश कुमार

महिला कामगारों के छोटे-छोटे बच्चे भी होते हैं। इन बच्चों की परवरिश भी उनके जिम्मे होती है। इसके साथ-साथ उन्हें मजदूरी भी करनी पड़ती है।

- मुनिया देवी

गरीबी उनकी सबसे बड़ी समस्या है। गरीबों की मार से वे परेशान है। उनके पास इतनी पूंजी नहीं होती है कि कोई व्यवसाय कर सके।

- कारभुवन बिंद

कार्यस्थल पर उनकी आवासीय प्रकृति बेहद जटिल होती है। कच्चे ईंट से बने झोपड़ी में उन्हें जीवन यापन करना होता है। इसमें कई समस्या होती है।

-तुलसी नोनिया

पथेरा समुदाय के महिलाओं की स्थिति बेहद नारकीय होती है। उनके सामने दोहरे कार्य की समस्या है। खाना भी बनाना होता है और मजदूरी भी करनी होती है। - हेमंती देवी

ईंट पाथना उनके परंपरागत पेशा बन गया है। उनके बाद उनके बच्चे भी इस पेशे को ही अपनाएंगे। इससे समाज के इस समुदाय का विकास संभव नहीं है।

-बिरजू कुमार

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