Hindi Newsधर्म न्यूज़Spiritual Story :The essence of life is in Shrimad Bhagwat Geeta

श्रीमद्भागवत गीता में है जीवन का सार

  • Bhagwat Geeta :श्रीमद्भागवत गीता में अठारह अध्याय और सात सौ श्लोक हैं। इनमें जीवन की सभी दुविधाओं और समस्याओं का हल है। इन अठारह अध्यायों में जीवन का सार है।

Arti Tripathi लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, अरुण कुमार जैमिनिTue, 10 Dec 2024 07:13 AM
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श्रीमद्भागवत गीता में अठारह अध्याय और सात सौ श्लोक हैं। इनमें जीवन की सभी दुविधाओं और समस्याओं का हल है। इन अठारह अध्यायों में जीवन का सार है।

श्रीमद्भागवत गीता के अठारह अध्यायों के बारे में बताते हुए श्रीविष्णु लक्ष्मी से कहते हैं— ‘गीता के पांच अध्याय मेरे मुख हैं, दस अध्याय मेरी भुजा हैं, सोलहवां अध्याय मेरा हृदय, मन और उदर हैं। सत्रहवां अध्याय मेरी जंघा है। अठारहवां अध्याय मेरे चरण हैं। गीता के श्लोक मेरी नाड़ियां हैं। गीता के अक्षर मेरा रोम-रोम हैं।’

गीता के अठारह अध्यायों में पहला अध्याय है— अर्जुन विषाद योग। इसमें उन परिस्थितियों और पात्रों के संबंध में कथन है, जिनकी वजह से कौरवों-पांडवों के बीच महाभारत का संग्राम हो रहा था। इस अध्याय में उन कारणों का वर्णन है, जिसकी वजह से श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा। मोहग्रस्त अर्जुन जब कृष्ण के समक्ष पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण करते हैं, तो गीता के ज्ञान से अर्जुन प्रकाशित होते हैं। सांख्य योग भगवद्गीता का दूसरा अध्याय है। और यह अध्याय सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि इस अध्याय में संपूर्ण गीता के उपदेशों का सार है। इसमें अर्जुन का कृष्ण के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण है। वे श्रीकृष्ण को अपना गुरु, अपना मार्गदर्शक स्वीकार कर लेते हैं। इसमें दुखों के मूल कारणों की विस्तार से व्याख्या है। दुखों के प्रति अज्ञानता के कारण ही मनुष्य जीवनभर दुख पाता है। निष्काम कर्म की व्याख्या इस अध्याय का एक अन्य प्रमुख बिंदु है। फल की आसक्ति किए बिना कर्म करना ही एक सच्चे कर्मयोगी के लक्षण हैं। इसके अलावा बिना किसी संशय के स्थिर मन से निर्णय लेनेवाला व्यक्ति ही सफलता के लक्ष्य को प्राप्त करता है। गीता के अन्य अध्याय हैं— कर्म योग, ज्ञान कर्म संन्यास योग, कर्म संन्यास योग, ध्यान योग, ज्ञान विज्ञान योग, अक्षर ब्रह्म योग, राज विद्या राज योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुण त्रय विभाग योग, दैवासुरसंपद विभाग योग, पुरुषोत्तम योग, श्रद्धात्रय विभाग योग और मोक्ष संन्यास योग। श्रीकृष्ण अर्जुन को अठारहवें अध्याय में संन्यास और त्याग में अंतर बताते हुए कहते हैं कि संन्यासी आध्यात्मिक अनुशासन के लिए परिवार और समाज को त्याग देता है। जबकि त्यागी व्यक्ति परिवार और समाज में रहकर अपने द्वारा किए गए कर्मों के फल की चिंता किए बिना भगवान को समर्पित होकर निष्काम कर्म करता है इसलिए त्याग, संन्यास से श्रेष्ठ है।

भगवद्गीता का मूल भाव यही है कि व्यक्ति को संशय मुक्त होकर निष्काम भाव से कर्म करने चाहिए। यह मोहग्रस्त व्यक्ति का मोह दूर करती है। दुविधाग्रस्त मनुष्य की दुविधा दूर करती है। अकर्मण्य मनुष्यों को कर्म करने की प्रेरणा देती है। सिर्फ कर्म ही नहीं बल्कि निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा, जिसमें किसी भी प्रकार के फल के प्रति आसक्ति न हो।

गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि उसके हाथ में केवल कर्म करना है। फल की इच्छा करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसी के अनुरूप उसे फल मिलता है। आपका कैसा कर्म कर रहे हैं? उसके पीछे भावना क्या है? कितने मनोयोग से उस कर्म को कर रहे हैं? ये सारी चीजें मिलकर ही उसका फल निर्धारित करती हैं। इसलिए कर्मयोगी को फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। उसे निष्काम भाव से केवल कर्म करना चाहिए।

गीता में कहा गया है कि आप जो भी कर्म कर रहे हैं, उसे लेकर आपके मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए। अगर आपके मन में उस कार्य के प्रति जरा भी संशय है तो आपको सफलता नहीं मिलेगी। क्योंकि सफलता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा सशंकित मन होता है। इसलिए जीवन में सीधा और स्पष्ट नजरिया होना चाहिए।

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