केवल आत्मा ही शाश्वत सत्य है
- मनुष्य का स्वभाव है कि वह नश्वर चीजों के पीछे भागता है। यह अलग बात है कि इन्हें पाने के पश्चात भी वह खाली हाथ ही रहता है। जबकि अज्ञान के अंधकार के कारण वह अनश्वर आत्मा को नहीं देख पाता, जबकि इस नश्वर जीवन में केवल आत्मा ही शाश्वत सत्य है।

आत्मानुभूति कोई बाहर की वस्तु नहीं कि उसकी पुन प्राप्ति हो सके। वह तो पहले ही से विद्यमान है। ‘मैंने अभी आत्मानुभूति नहीं की’ इस आशय वाले भाव को मन से निकाल देना चाहिए।
निश्छलता या शांति ही आत्मानुभूति है। एक पल भी ऐसा नहीं है, जब आत्मा विद्यमान न हो। जब तक संदेह हो या ‘मैंने नहीं जाना’ का भाव बना रहता है, तब तक वैसे संदेह या उस प्रकार के विचार को मन से निकाल देने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। आत्मा को अनात्मा समझने के कारण से ही वे विचार उठते हैं। जब अनात्मा का नाश हो जाता है, तब केवल विशुद्ध आत्मा बची रहती है। स्थान देने के लिए वहां की भीड़ को हटाना आवश्यक है; जगह तो कहीं बाहर से लानी नहीं है। आत्मा को पाना, ऐसा कुछ है ही नहीं। यदि पाने की बात होती तो उसका यह मतलब होता कि अब यहां वह नहीं है व उसे प्राप्त करना है। जिसकी नई प्राप्ति होती है, उसे खो भी सकते हैं। तब वह अनित्य ही होगा। जो अनित्य है, उसके लिए प्रयत्न ही क्यों किया जाए? इसलिए मैं कहता हूं कि आत्मा को पाना नहीं है। तुम ही आत्मा हो; तुम पहले ही से विद्यमान हो।
बात यह है कि तुम अपनी आनंदमय दशा से अपरिचित हो। बीच में अज्ञान आकर आनंदमय विशुद्ध आत्मा पर परदा डाल देता है। यह अज्ञानरूपी परदा जो कि मिथ्याज्ञान है, उसे दूर करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। शरीर, मन आदि को ‘आत्मा’ मानते हो यही तुम्हारी भूल है। इसलिए मन से मिथ्या विचार को हटाना जरूरी है। ऐसा होने पर केवल आत्मा प्रकाशित रहती है।
इसलिए आत्मानुभूति सबके लिए है। आत्मज्ञान के संबंध में मुमुक्षुओं के बीच में कोई अंतर उत्पन्न नहीं होता। ‘मैं कर सकूंगा?’ यह संदेह और ‘मैंने जाना नहीं’ ये विचार ही विघ्न रूप हैं। इसलिए पहले इन विघ्नों से छूटने का प्रयत्न करो।
जीवात्मा माने मन है। यह मन परिमित है। पर विशुद्ध चैतन्य सीमाओं से परे है और उसकी प्राप्ति उपर्युक्त प्रकार से अन्वेषण करने से होती है।
प्राप्ति— आत्मा शाश्वत है। तुम्हें उसके दर्शन से अटकाने वाले परदे को हटाना चाहिए।
स्थिर रखना— एक बार यदि तुम्हें आत्मज्ञान हो जाए, तब वह तुम्हारे नित्य प्रत्यक्ष अनुभव का सीधा विषय हो जाता है। वह सदा बनी रहेगी। उसे टिकाए रखने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि वह कभी गुम नहीं होती।
बढ़ाना— आत्मा को बढ़ाना तो होता ही नहीं है। क्योंकि वह सदैव संकोच व विस्तार रहित है।
एकांतवास— आत्मा की अनुभूति ही एकांत है। आत्मा के लिए कोई वस्तु परायी नहीं है। एकांत के लिए एक स्थान या दशा से दूसरे स्थान या स्थिति में पहुंचना पड़ता है। आत्मा से भिन्न और कुछ है ही नहीं। जब आत्मा ही सर्वत्र है, तब एकांत असंभव और अकल्प्य है।
अभ्यास— स्वाभाविक शांति में पड़ने वाली बाधाओं का निवारण ही अभ्यास है। तुम अभ्यास करो चाहे न करो, स्वाभाविक स्थिति में सदा बने रहते हो। तुम जैसे हो, वैसे रहकर प्रश्न रहित व शंका रहित बनकर रहना ही तुम्हारी स्वाभाविक दशा है।
सिद्धियों के प्रदर्शन के लिए उसे मानने वाले दर्शक की आवश्यकता होती है। अर्थात सिद्धियों के प्रदर्शक में ज्ञान नहीं होता है। इसलिए सिद्धि का विचार करना ही अनुचित है। केवल ज्ञान हमारा लक्ष्य है। उसी को प्राप्त करना है।
आत्मानुभूति कोई बाहर की वस्तु नहीं कि उसकी पुन प्राप्ति हो सके। वह तो पहले ही से विद्यमान है। ‘मैंने अभी आत्मानुभूति नहीं की’ इस आशय वाले भाव को मन से निकाल देना चाहिए।
निश्छलता या शांति ही आत्मानुभूति है। एक पल भी ऐसा नहीं है, जब आत्मा विद्यमान न हो। जब तक संदेह हो या ‘मैंने नहीं जाना’ का भाव बना रहता है, तब तक वैसे संदेह या उस प्रकार के विचार को मन से निकाल देने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। आत्मा को अनात्मा समझने के कारण से ही वे विचार उठते हैं। जब अनात्मा का नाश हो जाता है, तब केवल विशुद्ध आत्मा बची रहती है। स्थान देने के लिए वहां की भीड़ को हटाना आवश्यक है; जगह तो कहीं बाहर से लानी नहीं है। आत्मा को पाना, ऐसा कुछ है ही नहीं। यदि पाने की बात होती तो उसका यह मतलब होता कि अब यहां वह नहीं है व उसे प्राप्त करना है। जिसकी नई प्राप्ति होती है, उसे खो भी सकते हैं। तब वह अनित्य ही होगा। जो अनित्य है, उसके लिए प्रयत्न ही क्यों किया जाए? इसलिए मैं कहता हूं कि आत्मा को पाना नहीं है। तुम ही आत्मा हो; तुम पहले ही से विद्यमान हो।
बात यह है कि तुम अपनी आनंदमय दशा से अपरिचित हो। बीच में अज्ञान आकर आनंदमय विशुद्ध आत्मा पर परदा डाल देता है। यह अज्ञानरूपी परदा जो कि मिथ्याज्ञान है, उसे दूर करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। शरीर, मन आदि को ‘आत्मा’ मानते हो यही तुम्हारी भूल है। इसलिए मन से मिथ्या विचार को हटाना जरूरी है। ऐसा होने पर केवल आत्मा प्रकाशित रहती है।
इसलिए आत्मानुभूति सबके लिए है। आत्मज्ञान के संबंध में मुमुक्षुओं के बीच में कोई अंतर उत्पन्न नहीं होता। ‘मैं कर सकूंगा?’ यह संदेह और ‘मैंने जाना नहीं’ ये विचार ही विघ्न रूप हैं। इसलिए पहले इन विघ्नों से छूटने का प्रयत्न करो।
जीवात्मा माने मन है। यह मन परिमित है। पर विशुद्ध चैतन्य सीमाओं से परे है और उसकी प्राप्ति उपर्युक्त प्रकार से अन्वेषण करने से होती है।
प्राप्ति— आत्मा शाश्वत है। तुम्हें उसके दर्शन से अटकाने वाले परदे को हटाना चाहिए।
स्थिर रखना— एक बार यदि तुम्हें आत्मज्ञान हो जाए, तब वह तुम्हारे नित्य प्रत्यक्ष अनुभव का सीधा विषय हो जाता है। वह सदा बनी रहेगी। उसे टिकाए रखने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि वह कभी गुम नहीं होती।
बढ़ाना— आत्मा को बढ़ाना तो होता ही नहीं है। क्योंकि वह सदैव संकोच व विस्तार रहित है।
एकांतवास— आत्मा की अनुभूति ही एकांत है। आत्मा के लिए कोई वस्तु परायी नहीं है। एकांत के लिए एक स्थान या दशा से दूसरे स्थान या स्थिति में पहुंचना पड़ता है। आत्मा से भिन्न और कुछ है ही नहीं। जब आत्मा ही सर्वत्र है, तब एकांत असंभव और अकल्प्य है।
अभ्यास— स्वाभाविक शांति में पड़ने वाली बाधाओं का निवारण ही अभ्यास है। तुम अभ्यास करो चाहे न करो, स्वाभाविक स्थिति में सदा बने रहते हो। तुम जैसे हो, वैसे रहकर प्रश्न रहित व शंका रहित बनकर रहना ही तुम्हारी स्वाभाविक दशा है।
सिद्धियों के प्रदर्शन के लिए उसे मानने वाले दर्शक की आवश्यकता होती है। अर्थात सिद्धियों के प्रदर्शक में ज्ञान नहीं होता है। इसलिए सिद्धि का विचार करना ही अनुचित है। केवल ज्ञान हमारा लक्ष्य है। उसी को प्राप्त करना है।
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अपने आत्मज्ञान से दूसरों को लाभ दें। यह सचमुच सबसे बड़ी सेवा है, जो तुम दूसरों की कर सकते हो। जिन महानुभावों ने जब कभी सत्य का दर्शन किया है, उन्हें यह अपनी आत्मा की प्रशांत गहराई में से ही मिला है। वस्तुत उस स्थिति में दूसरा कोई सहायक नही है। जैसे सुनार भिन्न-भिन्न गहनों की कीमत लगाने से पहले सोने को कसकर देखता है, वैसे ही सिद्ध पुरुष केवल आत्मा को देखता है। जब तुम अपने को शरीर मानते हो, तभी नाम, रूप तुम्हारे सामने आते हैं। जब तुम देह भाव से आगे बढ़ जाओगे, तब ‘दूसरे’ भी लुप्त हो जाएंगे। ज्ञानी पुरुष जगत को अपने से भिन्न नहीं देखता है।
दूसरे कहां हैं कि उनसे मिल-जुलकर रहें? आत्मा ही साथ है। तुमको जिसने पैदा किया, उसी ने जगत की भी सृष्टि की। यदि वह सृष्टिकर्ता तुम्हारी रक्षा कर सकता है तो जगत की भी रक्षा कर सकता है। यदि ईश्वर जगत के सृष्टिकर्ता हैं तो उसकी रक्षा करना भी उनका काम है, तुम्हारा नहीं। तुम्हारा कर्तव्य यह या वह बनना नहीं, तुम्हारे मूल स्वरूप के अनुसार बनना है। केवल ‘अस्मिता’ ‘हूं’ में सब समा गया है। ‘स्थिर रहो’ यही उसका सार है।
निश्छलता का अर्थ क्या है? वह है अपनेपन का नाश करो। नाम और रूप ही सारे दुखों का कारण है। ‘मैं-मैं’ आत्मा है। ‘मैं यह हूं’ यह अहंकार है। जब ‘मैं’ का प्रतिपादन केवल ‘मैं’ रूप में होता है, तब वह आत्मा है। जब वह स्वरूप को छोड़कर इधर-उधर दौड़-धूप करता है— ‘मैं यह हूं, वह हूं, मैं ऐसा हूं, वैसा हूं’ तब अहंकार है।
आत्मा ही ईश्वर है। ‘मैं हूं’ यह ईश्वर है। यदि ईश्वर आत्मा से भिन्न हो तो वह आत्म-रहित ईश्वर होगा। वह मूर्खता की बात है। आत्मा की प्राप्ति के लिए केवल निश्छल बनना आवश्यक है। इससे आसान क्या हो सकता है? इसलिए आत्म विद्या की प्राप्ति बहुत ही सुलभ कही गई है।
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