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मन के नियंत्रण से मुक्त कर्म ही वास्तविक कर्म है

  • हम सभी किसी-न-किसी विचार से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, लेकिन कर्म जब अवधारणा या विचार की उपज नहीं होता है, तब वह स्वाभाविक होता है। तब अनुभव पर आधारित विचार-प्रक्रिया कर्म को नियंत्रित नहीं करती। इसका अर्थ है कि कर्म तभी वास्तविक होता है, जब वह मन के नियंत्रण से मुक्त होता है।

Saumya Tiwari लाइव हिन्दुस्तान, जे कृष्ण मूर्तिTue, 10 Sep 2024 05:45 AM
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विचार से हमारा तात्पर्य क्या है? आप कब विचार करते हैं? निस्संदेह विचार एक प्रतिक्रिया का परिणाम है। वह या तो इंद्रियों द्वारा किसी विषय के प्रति की गई त्वरित प्रतिक्रिया है या वह मनोवैज्ञानिक है, अर्थात हमारी संचित स्मृति की प्रतिक्रिया। किसी विषय के प्रति स्नायुओं की प्रतिक्रिया त्वरित होती है और इसके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होती है, जो संचित स्मृति का परिणाम है। उसके पीछे किसी जाति, समूह, गुरु, परिवार, परंपरा आदि का प्रभाव होता है। इसी सबको आप विचार कहते हैं। अत विचार क्या स्मृति का ही प्रत्युत्तर नहीं है? यदि आपके पास स्मृति न होती तो विचार भी नहीं होते। किसी अनुभव के प्रति स्मृति का प्रत्युत्तर ही विचार-प्रक्रिया को कार्यरत करता है।

मान लीजिए, उदाहरण के लिए मैं अपने को हिंदू कहता हूं और मेरे पास राष्ट्रवाद की संचित स्मृतियां हैं। विगत प्रतिक्रियाओं, कर्मों, निष्कर्षों, परंपराओं, रीति-रिवाजों की स्मृतियों का यह भंडार किसी मुसलमान, बौद्ध या ईसाई की चुनौती का प्रत्युत्तर देता है। इस चुनौती के प्रति स्मृति का यह प्रत्युत्तर अनिवार्यत विचार-प्रक्रिया को जन्म देता है। अपने अंदर कार्यरत इस विचार-प्रक्रिया को आप सावधानी से देखेंगे, तो इसकी सच्चाई की परख अपने आप हो जाएगी। किसी ने आपका अपमान किया है, और वह आपकी स्मृति में रहता है; वह आपकी पृष्ठभूमि का अंश बन जाता है। जब आप उस व्यक्ति से मिलते हैं, जो कि एक चुनौती है, तो उस अपमान की स्मृति ही आपका प्रत्युत्तर होती है। इस प्रकार स्मृति का यह प्रत्युत्तर जो कि विचार-प्रक्रिया है, धारणा को जन्म देता है; अत धारणा सदा संस्कारबद्ध होती है और यह समझ लेना आवश्यक है। इसका अर्थ यह हुआ कि धारणा विचार-प्रक्रिया का परिणाम है। विचार-प्रक्रिया स्मृति का प्रत्युत्तर है, और स्मृति सदा संस्कारबद्ध होती है। स्मृति सदा अतीत की ही होती है और कोई भी चुनौती उस स्मृति को वर्तमान में नए सिरे से जीवित कर देती है। स्मृति का अपना कोई जीवन नहीं होता। जब कोई चुनौती सामने खड़ी होती है, तब वर्तमान में वह जिंदा हो जाती है और समस्त स्मृति, वह सुषुप्त हो या सक्रिय, संस्कारों में जकड़ी होती है, क्या ऐसा नहीं होता?

इसलिए एक बिलकुल ही अलग दृष्टिकोण का होना जरूरी है। आपको अपने अंतर में स्वयं यह पता लगाना होगा कि क्या आप विचार के आधार पर कर्म कर रहे हैं या कर्म बिना विचार-प्रक्रिया के भी हो सकता है। आइए हम इसका पता लगाएं कि यह क्या है ऐसा कर्म, जो किसी धारणा पर आधारित नहीं है।

आप कब बिना धारणा बनाए कर्म करते हैं। ऐसा कर्म कब होता है, जो अनुभव का परिणाम नहीं है? जैसा कि हमने कहा, अनुभव पर आधारित कर्म सीमित करनेवाला होता है और इसलिए बाधा बनता है। कर्म जब अवधारणा, विचार की उपज नहीं होता है, तब वह स्वाभाविक होता है; और तब अनुभव पर आधारित विचार-प्रक्रिया कर्म को नियंत्रित नहीं करती। इसका अर्थ है कि कर्म अनुभव से स्वतंत्र तभी होता है, जब वह मन के नियंत्रण से मुक्त होता है। बोध केवल इसी अवस्था में होता है जब अनुभव पर आधारित मन कर्म का निर्देशन नहीं करता, अर्थात जब अनुभव पर आधारित विचार कर्म को आकार नहीं देता। विचार-प्रक्रिया न हो, तो कर्म क्या है? बिना विचार-प्रक्रिया के क्या कर्म संभव है? अर्थात मैं एक पुल, एक मकान, बनाना चाहता हूं, मैं उसकी तकनीक जानता हूं और वह तकनीक मुझे बताती है कि मैं उसे कैसे बनाऊं। उसे ही हम कर्म कहते हैं। कविता लिखना, चित्र बनाना, राजकीय एवं सामाजिक दायित्व निभाना, समाज और परिवेश के लिए जो उचित हो वह करना, ये सभी कर्म हैं। ये सभी किसी ऐसी अवधारणा या अतीत के अनुभव पर आधारित हैं, जो कर्म को स्वरूप प्रदान करते हैं। परंतु क्या उस स्थिति में भी कर्म हो सकता है, जब कोई उद्भावना, विचारणा नहीं होती? विचार कैसे उत्पन्न होते हैं, कैसे इंद्रियानुभव के सहारे विचार कर्म पर नियंत्रण रखते हैं— इस समस्त प्रक्रिया के प्रति सचेत होना हमारे लिए आवश्यक है।

निस्संदेह जब विचार का अंत हो जाता है, तब ऐसा कर्म संभव होता है; और विचार का अंत तब होता है, जब प्रेम हो। प्रेम स्मृति नहीं है। प्रेम अनुभव नहीं है। जिससे प्रेम किया जाए उसके बारे में सोचना प्रेम नहीं है, क्योंकि तब वह विचार मात्र है। आप प्रेम के विषय में विचार नहीं कर सकते। आप उस व्यक्ति के विषय में विचार कर सकते हैं, जिससे आप प्रेम करते हैं या जिसके प्रति आपकी निष्ठा है— अपने गुरु, अपने आदर्श, अपनी पत्नी, अपने पति के प्रति; परंतु विचार, प्रतीक वह यथार्थ नहीं है, जो प्रेम है। अत प्रेम अनुभव नहीं है।

जब प्रेम है तो कर्म है। और क्या ऐसा कर्म मुक्ति देनेवाला नहीं होता? क्या वह कर्म मानसिक क्रिया का परिणाम नहीं है? विचार और कर्म के बीच में तो खाई होती है, परंतु वैसी खाई प्रेम और कर्म के बीच नहीं होती है। प्रेम और कर्म के बीच ऐसा कोई फासला नहीं होता, जो विचार और कर्म के बीच होता है।

अवधारणा सदा अतीत की होती है; वर्तमान पर वह अपनी छाया डालती है और हम सदा कर्म और अवधारणा के बीच की खाई पर पुल बांधने का प्रयत्न करते रहते हैं। जब प्रेम होता है— जो मानसिक भाव नहीं है, विचारणा नहीं है, स्मृति नहीं है, किसी अनुभव अथवा किसी अभ्यस्त अनुशासन का परिणाम नहीं है— तो वह प्रेम स्वयं ही कर्म है। और केवल वही मुक्त करता है।

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