अपनी इच्छाओं का दमन नहीं शमन करें
- किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए इच्छा का होना जरूरी है। यह इच्छा ही उसकी शक्ति बन कर उससे हर कार्य करवाती है। लेकिन समाज का एक वर्ग इच्छाओं के दमन करने की बात करता है। बात इच्छाओं के दमन से नहीं, बल्कि उन्हें समझ कर शमन करने से बनती है।
जब आप इच्छा का निरीक्षण करते हैं, तब क्या आप किसी अजनबी की तरह उसे देखते हैं? या इच्छा उठने के साथ ही उसका निरीक्षण करते चलते हैं? ऐसा नहीं कि इच्छा करनेवाले व्यक्ति की इच्छा अलग है; इच्छा करनेवाला ही स्वयं इच्छा है।
इच्छा हमारे जीवन की एक अत्यावश्यक प्राणभूत प्रेरणा है। हम इच्छा मात्र की बात कर रहे हैं, किसी विशिष्ट चीज को पाने की इच्छा के बारे में नहीं। सारे धर्मों ने कहा है कि यदि आप भगवान को पाना चाहते हैं तो इच्छा को वश में करना होगा, इच्छा को नष्ट करना होगा, इच्छा को नियंत्रित करना होगा। सारे धर्मों ने कहा है इच्छा के स्थान पर विचार द्वारा बनाई किसी प्रतिमा की स्थापना करो, यानी वास्तविक के स्थान पर काल्पनिक की स्थापना। इच्छा वास्तविक है, ज्वलंत है और लोग समझते हैं कि उसके स्थान पर किसी दूसरी चीज की स्थापना करने से उस पर काबू पा लिया जाएगा। या फिर आप उस व्यक्ति की शरण में चले जाते हैं, जिसे आप महात्मा, परमात्मा, गुरु मानते हैं। और ये सब विचार के ही क्रिया-कलाप हैं। सारे धार्मिक चिंतन का यही ढांचा रहा है। इच्छा की समग्र गतिविधि को समझना हमारे लिए आवश्यक है, क्योंकि स्पष्ट है कि वह न तो प्रेम है और न ही करुणा। प्रेम और करुणा की अपनी स्वयं की एक प्रज्ञा होती है; वह धूर्त विचार की बुद्धिमत्ता नहीं होती।
अत इच्छा का स्वरूप क्या है तथा इच्छा हमारे जीवन में इतनी असाधारण भूमिका क्यों निभाती रही है, यह समझ लेना महत्वपूर्ण है। यह समझना आवश्यक है कि इच्छा कैसे स्पष्टता को विकृत कर देती है, प्रेम की उस अद्भुत गुणवत्ता में कैसे आड़े आती है। आवश्यकता यह है कि हम इच्छा को समझें, न कि उसका दमन करें। उसे किसी विशिष्ट दिशा में संचालित करने लगें।
एक बात ध्यान में रखिए कि मैं न तो आपको प्रभावित करना चाहता हूं और न ही आपका मार्गदर्शन या आपकी सहायता करना चाहता हूं। बल्कि हम सब मिलकर बहुत ही सूक्ष्म व जटिल राह पर चल रहे हैं; इच्छा के बारे में, उसकी सच्चाई का पता लगाने के लिए हमें एक-दूसरे की बात सुननी होगी। जब हम इच्छा के तात्पर्य को, अर्थ को, उसके विस्तार को, उसकी सच्चाई को समझ पाएंगे, तब इच्छा का हमारे जीवन में कुछ अलग ही मूल्य होगा, तब इच्छा जीवन की एक अलग ही प्रेरक शक्ति होगी।
जब आप इच्छा का निरीक्षण करते हैं, तब क्या आप किसी अजनबी की तरह उसे देखते हैं? या इच्छा उठने के साथ ही उसका निरीक्षण करते चलते हैं? ऐसा नहीं कि इच्छा करनेवाले व्यक्ति की इच्छा अलग है; इच्छा करनेवाला ही स्वयं इच्छा है। आप इस फर्क को समझ रहे हैं? या तो आप इच्छा का— जो आप में तब जागती है, जब आप दुकान में सजी किसी चीज को देखते हैं, जो आपको पसंद आ जाती है और आप उसे खरीदना चाहते हैं। इस प्रकार निरीक्षण करते हैं कि निरीक्षण का विषय ‘मैं’ से भिन्न है या फिर वह इच्छा ही ‘मैं’ होती है और इस तरह इच्छा की वह प्रतीति होती है, प्रत्यक्ष बोध होता है, जिसमें इच्छा का निरीक्षण करनेवाला कोई निरीक्षक नहीं है।
मान लीजिए आप किसी वृक्ष की ओर देख रहे हैं। ‘वृक्ष’ केवल एक शब्द है और उसकी सहायता से मैदान में खड़ी उस वस्तु को आप पहचान लेते हैं। परंतु हम जानते हैं कि ‘वृक्ष’ शब्द वास्तविक वृक्ष नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि आप इसकी सारी बारीकियों को समझ रहे हैं या नहीं। शब्द एक बात है और वस्तु अलग। ‘इच्छा’ शब्द उस शब्द द्वारा सांकेतिक भाव नहीं है— वह असाधारण अहसास जो उस प्रतिक्रिया के पीछे छिपा है। इसलिए हमें बहुत सतर्क रहना होगा कि हम कहीं शब्द में फंस न जाएं। इसी तरह हमारा मस्तिष्क इतना फुर्तीला होना चाहिए कि यह देख पाए कि कोई चीज इच्छा उत्पन्न कर सकती है और वह इच्छा उस चीज से पृथक होती है। क्या आपको अहसास है कि शब्द वस्तु नहीं है और इच्छा का अवलोकन करनेवाले से इच्छा अलग नहीं है? क्या आपको भान है कि कोई विषय इच्छा तो उत्पन्न कर सकता है, फिर भी वह इच्छा उस विषय से अलग होती है?
इच्छा खिलती कैसे है? उसके पीछे इतनी असाधारण ऊर्जा क्यों होती है? यदि हम इच्छा के स्वरूप को गहराई से समझ नहीं लेते तो हम हमेशा एक-दूसरे के साथ द्वंद्व में रहेंगे।