परमात्मा का पर्याय है निरंतर नया होना
- जब तक हम खुद को नया नहीं बनाएंगे, तब तक कुछ भी नया पुराना ही लगेगा। जिस दिन हमें खुद को नया करना आ गया तो फिर हमें जीवन में नयेपन को ढूंढ़ने की जरूरत नहीं रहेगी। नयापन परमात्मा का ही एक गुण है। परमात्मा के साथ निरंतर आत्मिक बने रहना ही नयापन है।
नए वर्ष में यह कहना चाहूंगा कि दिन तो रोज ही नया होता है, लेकिन रोज नए दिन को न देख पाने के कारण हम वर्ष में कभी-कभी नए दिन को देखने की कोशिश करते हैं। जिसके पास ताजा मन हो, वह हर चीज को ताजी और नई कर लेता है। लेकिन ताजा मन हमारे पास नहीं है, तो हम चीजों को नया करते हैं। नए की खोज जरूर है मन में, होनी भी चाहिए। दो तरह की नए की खोज होती है। एक तो स्वयं को नया करने की खोज होती है। जो आदमी स्वयं को नया कर लेता है, उसके लिए कभी कोई चीज पुरानी होती ही नहीं। जो अपने मन को रोज नया कर लेता है, उसके लिए हर चीज रोज नई हो जाती है, क्योंकि वह आदमी रोज नया हो जाता है। जो अपने को नया नहीं कर पाता उसके लिए सब चीजें पुरानी ही होती हैं। दूसरे, लोग स्वयं को नया नहीं करते, बल्कि चीजों को नया करते हैं, इसलिए उनके लिए रोज नया नहीं होता, कभी-कभी नया होता है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं— एक वे, जो अपने को नया करने का राज खोज लेते हैं। दूसरे वे, जो अपने को पुराना बनाए रखते हैं और चीजों को नया करने में लगे रहते हैं। इन्हें भौतिकतावादी कहना चाहिए, जो चीजों को नया करने की तलाश में है। भौतिकतावादी और अध्यात्मवादी में एक ही फर्क है। अध्यात्मवादी रोज अपने को नया करने की चिंता में संलग्न है। उसका कहना यह है कि अगर मैं नया हो गया तो इस जगत में मेरे लिए कुछ भी पुराना न रह जाएगा। क्योंकि, जब मैं ही नया हो गया तो पुराने का स्मरण करनेवाला भी नहीं बचा, पुराने को देखनेवाला भी नहीं बचा, हर चीज नई हो जाएगी। भौतिकतावादी कहता है कि चीजें नई करो, क्योंकि स्वयं के नए होने का तो कोई उपाय नहीं है। नया मकान बनाओ, नई सड़कें लाओ, नए कारखाने, सारी व्यवस्था नई करो। सब नया कर लो, लेकिन अगर आदमी पुराना है और चीजों को पुराना करने की तरकीब उसके भीतर है, तो वह सब चीजों को पुराना कर ही लेगा। फिर हम इस तरह धोखे पैदा करते हैं।
पुराना उबाता है। उस ऊब से छूटने के लिए हम थोड़ी-बहुत तरकीब करते हैं, तड़फड़ाते हैं। लेकिन उससे कुछ होता नहीं है। फिर पुराना सेटल हो जाता है। एक-दो दिन बाद फिर पुराना साल शुरू हो जाएगा। फिर अगले वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। नया दिन आएगा, फिर नए दिन हम थोड़े नए कपड़े पहनेंगे, थोड़े मुस्कुरा के, थोड़ी चारों तरफ खुशी की बात करेंगे, ऐसा लगेगा कि सब नया हो रहा है। सब झूठा है, क्योंकि यह बहुत बार नया हो चुका है, पर बिलकुल नया कभी नहीं हुआ है। यह दिन हर साल आता है और हर साल पुराना साल वापस लौट आता है। इससे हमारी आकांक्षा का तो पता चलता है, लेकिन हमारी समझदारी का पता नहीं चलता। आकांक्षा तो हमारी है कि नया दिन हो, वर्ष में एक ही हो तो भी बहुत है। लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है? अगर एक दिन को नया करने की तरकीब पता चल जाए, तो हम हर दिन को नया क्यों नहीं कर सकते?
हम हर चीज को पुराने करने की पूरी तरकीबें खोजते हैं, नए करने की कोई तरकीब नहीं खोजते। मैं आपको नए करने की तरकीब बताना चाहता हूं। अगर आपको एक बार यह राज समझ में आ जाए कि चीजों को नया कैसे करना है, तो आपकी जिंदगी इतनी खुशियों से भर जाएगी कि अलग से खुशियों के फूल खरीदने की जरूरत नहीं रह जाएगी।
पहली तो बात यह है कि प्रतिपल नए की खोज की हमारी दृष्टि होनी चाहिए कि क्या नया है? हम पूछते हैं क्या पुराना है? हमारे मन में प्रश्न होना चाहिए कि क्या नया है? और अगर हमारे मन में यह प्रश्न हो, तो ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिसमें कुछ नया न आ रहा हो। सुबह सूरज को उठ कर देखें, जो सूर्योदय आज हुआ है, वह कभी भी नहीं हुआ था। सूर्योदय रोज हुआ है, लेकिन जो आज हुआ है, वह कभी भी नहीं हुआ था। लेकिन हो सकता है आप कह दें सूर्योदय रोज होता है, नया क्या है? लेकिन यह सूरज जैसा आज की सुबह उगा है, ऐसा न कभी उगा था, न उग सकता है।
आप नए का सम्मान करना सीखें तो नया प्रकट होगा। अलग से त्योहार, दिन और वर्ष मनाने की जरूरत नहीं रह जाएगी। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि तीन सौ पैंसठ दिन ही नए हो सकते हैं। प्रतिपल नया हो सकता है। नए की तैयारी और नए का सम्मान और नए के लिए मन का द्वार खुला होना चाहिए। जो व्यक्ति एक बार नए के लिए अपने मन के द्वार को खोल लेता है, आज नहीं, कल वह पाता है कि नए के पीछे परमात्मा प्रवेश कर गया। क्योंकि अगर कुछ है, तो जो निरंतर नया है, उसी का नाम परमात्मा है।
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