भगवान हमेशा अपने सच्चे भक्त के प्रति प्रेम रखते हैं
सच्चे भक्त पर भगवान की कृपा सदैव बनी रहती है। उसे बस अपने अंदर उनकी उपस्थिति को महसूस करना होता है। जो व्यक्ति हर घटना के पीछे भगवान का हाथ पहचानता है, बड़ी-से-बड़ी असफलताओं के बावजूद शांत रहता है और जो शांत रहता है, वही अंत में सफल होता है।
क्या तुम सचमुच भगवान को चाहते हो? क्या तुम सचमुच उनके दर्शन के लिए प्यासे हो? क्या तुममें सच्ची आध्यात्मिक भूख है? ये ऐसे आवश्यक प्रश्न हैं, जिनका तुम्हें अपने जीवन में प्रतिदिन उत्तर देना चाहिए। जो भगवान के दर्शन के लिए प्यासा है, उसके मन में भगवान के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा। उसके लिए भगवान स्वयं प्रकट होंगे। यह आपूर्ति और मांग का प्रश्न है। यदि भगवान की सच्चे मन से मांग की जाए, तो आपूर्ति तुरंत आ जाएगी। प्रह्लाद की तरह निष्ठापूर्वक प्रार्थना करो। ऋषि वाल्मीकि, संत तुकाराम और भक्त तुलसीदास की तरह भगवान का नाम जपें। गौरांग महाप्रभु की तरह कीर्तन करो। भगवान से वियोग में मीरा की तरह एकांत में रोओ। तुम्हें भगवान के दर्शन इसी क्षण हो जाएंगे। कभी अपने आप को परखें। आत्मनिरीक्षण करें और भगवान के प्रति अपने प्रेम को विकसित करें। उनसे प्रार्थना करें। उनके लिए रोएं और रोएं। उनका नाम जपें और उनका नाम गाएं। वे अवश्य ही तुम्हें अपनी कृपा से आशीर्वाद देंगे।
सच्चे भक्त पर भगवान की कृपा सदैव बनी रहती है। उसे बस अपने अंदर उनकी उपस्थिति को महसूस करना होता है। जो व्यक्ति हर घटना के पीछे भगवान का हाथ पहचानता है, बड़ी-से-बड़ी असफलताओं के बावजूद शांत रहता है और जो शांत रहता है, वही अंत में सफल होता है।
भगवान हमेशा सच्चे भक्त के प्रति प्रेम रखते हैं। हमारे प्रति उनके असीम प्रेम के कारण ही जीवन जीने योग्य है। हमारे सभी सच्चे प्रयास हमारे आंतरिक अस्तित्व के सरल प्रकटीकरण हैं। भगवान के स्वागत के लिए हमें अपने हृदय के आंतरिक कक्षों को हमेशा खुला रखना चाहिए। भगवान हमेशा मधुर हैं। वे द्वार पर दस्तक देते हैं। देखो! क्या तुम अपने प्रियतम के प्रवेश के लिए अपना द्वार नहीं खोलोगे? आह! तुम कुंजी खोज रहे हो। यह तुम्हारे पास है, तुम्हारे होठों के बीच है, और वह है— भगवान का मधुर नाम।
अपने हृदय में प्रेम का पौधा लगाओ और उसे नित्य सींचो, ताकि उसमें प्रेम के फल लगें। प्रेम बहुत शक्तिशाली है। सच्चा सार्वभौमिक प्रेम वास्तव में ईश्वर है। सभी पौराणिक ग्रंथों में प्रेम की भावना इस विश्वास से पैदा होती है कि वही आत्मा ब्रह्मांड और उसमें मौजूद सभी प्राणियों के रूप में प्रकट होती है। शुद्ध प्रेम ही ईश्वर है। शुद्ध प्रेम आकाश की तरह असीम है। शुद्ध प्रेम समुद्र की तरह असीम है। यह सबको अपने में समाहित कर लेता है। यह अनंत तक फैलता है। इसकी कोई सीमा नहीं है। यह बरगद के पेड़ की शाखाओं की तरह फैलता है। यह सभी सीमाओं को पार कर पूरे ब्रह्मांड को अपने में समाहित कर लेता है। इसलिए चिंतन, निस्वार्थ सेवा, जप, कीर्तन, सत्संग, भगवान का निरंतरस्मरण और ध्यान के माध्यम से अहंकार, वासना और तृष्णा को नष्ट करके शुद्ध प्रेम का विकास करें और ईश्वर के परम प्रेम में हमेशा के लिए शांतिपूर्वक विश्राम करें।