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पूर्वजों को स्मरण करने का पर्व है पितृपक्ष

  • गरुड़ पुराण में कहा गया है कि आत्मा शरीर से निकलने के बाद, दस दिनों तक प्रेत योनि में निवास करती है क्योंकि परिवर्तन काल इतना बड़ा होता है कि आत्मा भ्रमित हो जाती है। अब जब शरीर छूट गया है, तो आत्मा उस शरीर में लौटना नहीं चाहती क्योंकि शरीर अब उसे अशुद्ध लगता है।

Shrishti Chaubey लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, श्री श्री रविशंकरTue, 17 Sep 2024 05:24 AM
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श्राद्ध का मतलब है, श्रद्धा से किया गया कृत्य। इसमें पिंडदान और तर्पण किया जाता है। आइए पितृपक्ष में हम प्रार्थना करें और अपने पूर्वजों को धन्यवाद दें। इस अवधि में अपने पितरों के लिए प्रार्थना और ध्यान करना भी पर्याप्त है। ऐसा कहा जाता है कि जब आप ध्यान करते हैं तो उसका पुण्य हमारी सात पीढ़ियों तक पहुंचता है।पितृपक्ष, उन सभी पूर्वजों को याद करने का समय है, जो इस दुनिया से गुजर चुके हैं। अकसर, जिस तिथि को किसी का शरीर शांत होता है, उसी तिथि को उनके लिए श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष के सोलह दिनों के भीतर किसी भी एक दिन सभी पितरों को याद करके उपवास किया जाता है या उनकी याद में कोई अच्छा काम किया जाता है।

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि आत्मा शरीर से निकलने के बाद, दस दिनों तक प्रेत योनि में निवास करती है क्योंकि परिवर्तन काल इतना बड़ा होता है कि आत्मा भ्रमित हो जाती है। अब जब शरीर छूट गया है, तो आत्मा उस शरीर में लौटना नहीं चाहती क्योंकि शरीर अब उसे अशुद्ध लगता है। लेकिन आत्मा को दूसरी दुनिया की आदत नहीं होती और वह बीच में होती है, इसे प्रेत योनि कहा जाता है। फिर कुछ समय के बाद जब वह इस बीच की स्थिति की अभ्यस्त हो जाती है, तब और आगे बढ़ जाती है।

जब किसी की मृत्यु हो जाती है, तो उनके परिवारजन या पुजारी कहते हैं कि ‘आप शरीर नहीं हैं, आप मन नहीं हैं, आप बुद्धि नहीं हैं; इससे आगे बढ़ें। शरीर के पृथ्वी तत्व को इस संसार के पृथ्वी तत्व में मिल जाने दें। इसके जल तत्व को संसार के जल तत्व में विलीन हो जाने दें और इस मृत शरीर को अग्नि तत्व को ग्रहण कर लेने दें।’ इस तरह से मृत शरीर को वापस प्रकृति में विलीन कर देते हैं। शरीर छोड़ने के बाद आत्मा को इस ज्ञान से आगे के संसार में जाने में सहायता मिलती है।

अब तक आत्मा अपने शरीर की पहचान पर टिकी हुई थी लेकिन अब यह कहती है, ‘मैं यह शरीर नहीं हूं, फिर मैं कौन हूं?’ इस सजगता के साथ आत्मा ज्ञान रूपी ‘गौ’ की पूंछ पकड़कर भवसागर रूपी ‘वैतरणी नदी’ पार कर जाती है।

श्राद्ध का मतलब है— श्रद्धा से किया गया कृत्य। इसमें पिंडदान और तर्पण किया जाता है। ‘पिंड’ का मतलब है शरीर; और ‘ब्रह्मांड’ अव्यक्त, निर्गुण और निराकार चेतना है। आत्मा को ब्रह्मांड में रहते हुए पिंड की आशा रहती है और पिंड में रहते हुए, ब्रह्मांड की आशा रहती है; यही मानव स्वभाव है। जब आत्मा शरीर छोड़कर निर्गुण, निराकार ब्रह्मांड में समा जाती है, तब भी सूक्ष्म शरीर या कारण शरीर को ऐसा लगता है कि उसने कुछ खो दिया है। उसका ऐसा भाव कुछ समय तक बना रहता है। इसी कारण सूक्ष्म शरीर की इच्छा होती है कि उसे एक शरीर मिल जाए। कई बार पिंड या शरीर पाने की यह वासना छूटती नहीं है। जब ब्रह्मांड में जाने के बाद भी पिंड की चाह मन में बनी रहती है तो श्राद्ध के माध्यम से पितरों के पुत्र या पुत्री ऐसा कहते हैं कि ‘आपको पिंड मिल जाएगा। आप चिंता न करें, हम पिंडदान देंगे।’

पितृपक्ष में पिंडदान और तिल का तर्पण करने का बहुत महत्व है। तर्पण का मतलब है—‘पूरा होना, आगे बढ़ना।’ ऐसा समझा जाता है कि तर्पण पूर्ण हो जाने पर जो पितृ, प्रेत योनि के इस मध्य चरण में रह गए थे, वे पितृ लोक में चले गए हैं और अपने अन्य पूर्वजों जैसे दादा-दादी, नाना-नानी आदि से मिल गए हैं। तिल सबसे छोटी चीज है और यह दर्शाता है कि आपकी इच्छाएं तिल के समान बहुत छोटी हैं। संसार में जो कुछ भी है, वह तिल के समान तुच्छ और महत्वहीन है। इसलिए यदि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की आत्मा में इच्छाएं और वासनाएं रह गई हों, तो उसके सगे-संबंधी जल के साथ तिल को छोड़कर तर्पण करते हैं और अपने पितरों से यह कहते हैं कि वे इसी प्रकार तिल के बीज की तरह मन की छोटी-छोटी इच्छाओं, वासनाओं, राग और द्वेष को त्याग दें। और उनके जीवन में जो भी अधूरे कार्य थे, उन्हें अपनी संतानों या सगे-संबंधियों पर छोड़ दें; वे उसका ध्यान रखेंगे। पितरों की संतानें या संबंधी उनसे प्रार्थना करते हैं कि पितृ संतुष्ट रहें और आगे बढ़ें। स्वजनों और संबंधियों का यह प्रोत्साहन, तर्पण का एक महत्वपूर्ण अंग है।

पितृपक्ष में प्रार्थना करें और अपने पूर्वजों को धन्यवाद दें। इस समय में अपने पितरों के लिए प्रार्थना और ध्यान करना भी पर्याप्त है। ऐसा कहा जाता है कि जब आप ध्यान करते हैं तो उसका पुण्य हमारी सात पीढ़ियों तक पहुंचता है और हमारे जो पितृ इस संसार को छोड़कर आगे की यात्रा पर चले गए हैं, उन्हें भी शांति मिलती है। साथ ही हमारे देश में हर उत्सव के साथ ‘सेवा’ जुड़ी होती है इसलिए इस समय लोग वृद्धों, महिलाओं, बच्चों और गायों की सेवा करते हैं। इस तरह से यदि पितृपक्ष के समय आप और कुछ नहीं भी कर पाते तो केवल ध्यान और सेवा करना भी पर्याप्त है।

इस तरह की प्रथाएं लगभग सभी देशों में पाई जाती हैं। वहां भी ऐसे कुछ दिन होते हैं, जिनमें लोग अपने पूर्वजों को याद करते हैं; उनके लिए भोजन बनाते हैं और दान देकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। ऐसी प्रथाएं दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया के क्षेत्रीय लोगों और चीन में भी हैं। पितृपक्ष में यह प्रथाएं इसलिए होती हैं ताकि पितरों को स्मरण किया जा सके और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया जा सके।

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